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"कभी-कभी / प्रेमशंकर रघुवंशी" के अवतरणों में अंतर
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अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमशंकर रघुवंशी }} {{KKCatKavita}} <poem> बाग-बगीचों की फू…) |
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11:14, 31 मार्च 2011 के समय का अवतरण
बाग-बगीचों की फूलों की
नित चर्चा करने वालो
कभी-कभी तो वनफूलों की
ख़ुशबू पर बातें कर लो !
ये हैं ऐसे फूल कि जिनके
माली ये ख़ुद ही होते
ये न कभी मौसम की नरमी
गरमी से विचलित होते
ये हैं ऐसे फूल कि हरदम
वन की गोदी में खिलते
ये हैं ऐसे फूल कि हरदम
अपने पानी पर पलते
बाग़-बग़ीचों की क्यारी पर
नित विचार करने वालो
कभी-कभी तो वनफूलों की
सर्जन पर बातें कर लो !!
जिन फूलों पर मोहित हो तुम
वे क़लमों पर अवलंबित
परजीवी वे परआश्रित हैं
गैर जड़ों से संचालित
अनुभव निजी न कोई उनके
ना जीवन्के संवेदन
द्वंद्व न कोई उनके अंदर
ना ही कोई उद्वेलन
बाग़-बग़ीचों की सौरभ का
नित प्रचार करने वालो
कभी-कभी तो वनफूलों के
कामों का सुमरन कर लो !!