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19:15, 5 जनवरी 2008 के समय का अवतरण
जीवन को समझौते की दलदल में रखकर
जीने से इन्कार रहा है । इससे क्योंकर
दुखी हुए हैं मेरे भाई! आँच हृदय की
धधक रही है । नहीं बुझेगी तब तक, जब तक
लोगों को सुख की चादर में सोया पाकर
उनके सुख से तृप्त नहीं हो जाऊँ जी भर ।
रात-रात भर, जाग-जाग कर सपनों में मैं
भारत की तस्वीर बनाता हूँ जिसमें वह
सैनिक है । लड़ने खातिर तैयार हो रहा ।
समझ रहा है चीज़ों को उनकी हालत में ।
गुज़र रहा है लोगों की पीड़ा से होता ।
ऎसे में कैसे बोलो समझौता कर लूँ
उन्हीं ताकतों से जिनकी सूरत से घृणा
भभक रही है । भभक रही है । भभक रही है ।
(रचनाकाल : 1982)