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"जीवन के मंच पर / सरस्वती माथुर" के अवतरणों में अंतर

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08:18, 4 अक्टूबर 2011 के समय का अवतरण

शहर की रोशनियों पर
टपक रही थी रात
दूर तक पसरे से पेड़ों पर
हरी परछाईयां समेटती
स्मृतियों की रेलगाड़ी
गुजर रही थी
अतीत के पहाड़ों पर
फेंकती हुई ताम्बई रंग
कुछ उन्मुक्त सी मैं
आकाश में
पंछियों को देखती रही
जो परियों की तरह
उड़ रहे थे
सोचती रही मैं
अतीत अपना रहस्य
कभी नहीं खोलता
क्यों हम फ़िज़ूल ही
स्मृतियों को बुलाते हैं
एक आँगन ले आते हैं
भूले बिसरे लोग बिठा कर
उनके साथ ,बतियाते, हँसते हैं
गाहे- बगाहे यादों के झरोखे
खोलते बंद करते रहते हैं
जीवन के अनखुले मंच पर
चेहरे दर्ज कराते हैं
ठहरी हुई जिंदगी में
न जाने क्यो
अपनी तसल्ली के लिये
कठपुतलियां नचाते हैं !