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"मंजिल / रेशमा हिंगोरानी" के अवतरणों में अंतर
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वफ़ा की राह पर,
निकल तो आए हैं लेकिन,
कदम-कदम पे इम्तिहान-ए-वक़्त,
बिखरे हुए!
लबों पे मुस्कुराहटों के,
हैं लिबास कहीं,
कहीं सैलाब-ए-अश्क,
राह बनाता निकले!
अजब-अजब से हैं मुक़ाम ,
अजब हैं जज़्बे,
सफ़र आसान,
भी हो जाए गर,
किसे मालूम?
कहीं होती भी हो,
मंजिल,
मगर…
किसे मालूम?
मार्च 1997