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"अंधेरे में / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
 
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|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
 
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 +
<poem>
 +
सीन बदलता है
 +
सुनसान चौराहा साँवला फैला,
 +
बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर, 
 +
ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद, 
 +
साँवली हवाओं में काल टहलता है।
 +
रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,
 +
मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,
 +
चार अलग कोण,
 +
कि चार अलग संकेत
 +
(मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ)
 +
खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं,
 +
शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास
 +
बेचैन ख़यालों के पंखों के कीड़े
 +
उड़ते हैं गोल-गोल
 +
मचल-मचलकर।
 +
घण्टाघर तले ही
 +
पंखों के टुकड़े व तिनके।
 +
गुम्बद-विवर में बैठे हुए बूढ़े
 +
असम्भव पक्षी
 +
बहुत तेज़ नज़रों से देखते हैं सब ओर,
 +
मानो कि इरादे
 +
भयानक चमकते।
 +
सुनसान चौराहा
 +
बिखरी हैं गतियाँ, बिखरी है रफ़्तार,
 +
गश्त में घूमती है कोई दुष्ट इच्छा।
 +
भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक में
 +
अँधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक
 +
ताँबे से चेहरे की ऐंठ झलकती।
 +
पथरीली सलवट
 +
दियासलाई की पल-भर लौ में
 +
साँप-सी लगती।
 +
पर उसके चेहरे का रंग बदलता है हर बार,
 +
मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो...
 +
वह ताक रहा है--
 +
संगीन नोंकों पर टिका हुआ
 +
साँवला बन्दूक़-जत्था
 +
गोल त्रिकोण एक बनाये खड़ा जो
 +
चौक के बीच में!!
 +
एक ओर 
 +
टैंकों का दस्ता भी खड़े-खड़े ऊँघता,
 +
परन्तु अड़ा है!! 
  
सीन बदलता है<br>
+
भागता मैं दम छोड़,  
सुनसान चौराहा साँवला फैला,<br>
+
घूम गया कई मोड़
बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर, <br>
+
भागती है चप्पल, चटपट आवाज़
ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद, <br>
+
चाँटों-सी पड़ती।
साँवली हवाओं में काल टहलता है।<br>
+
पैरों के नीचे का कींच उछलकर
रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,<br>
+
चेहरे पर छाती पर, पड़ता है सहसा,  
मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,<br>
+
ग्लानि की मितली।
चार अलग कोण,<br>
+
गलियों का गोल-गोल खोह अँधेरा
कि चार अलग संकेत<br>
+
चेहरे पर आँखों पर करता है हमला।
(मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ)<br>
+
अजीब उमस-बास
खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं,<br>
+
गलियों का रुँधा हुआ उच्छवास
शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास<br>
+
भागता हूँ दम छोड़, 
बेचैन ख़यालों के पंखों के कीड़े<br>
+
घूम गया कई मोड़।
उड़ते हैं गोल-गोल<br>
+
धुँधले-से आकार कहीं-कहीं दीखते,  
मचल-मचलकर।<br>
+
भय के? या घर के? कह नहीं सकता
घण्टाघर तले ही<br>
+
आता है अकस्मात् कोलतार-रास्ता
पंखों के टुकड़े व तिनके।<br>
+
लम्बा व चौड़ा व स्याह व ठंडा,  
गुम्बद-विवर में बैठे हुए बूढ़े<br>
+
बेचैन आँखें ये देखती हैं सब ओर।
असम्भव पक्षी<br>
+
कहीं कोई नहीं है,  
बहुत तेज़ नज़रों से देखते हैं सब ओर,<br>
+
नहीं कहीं कोई भी।
मानो कि इरादे<br>
+
श्याम आकाश में, संकेत-भाषा-सी तारों की आँखें
भयानक चमकते।<br>
+
चमचमा रही हैं।
सुनसान चौराहा<br>
+
मेरा दिल ढिबरी-सा टिमटिमा रहा है।
बिखरी हैं गतियाँ, बिखरी है रफ़्तार,<br>
+
कोई मुझे खींचता है रास्ते के बीच ही।
गश्त में घूमती है कोई दुष्ट इच्छा।<br>
+
जादू से बँधा हुआ चल पड़ा उस ओर।
भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक में<br>
+
सपाट सूने में ऊँची-सी खड़ी जो
अँधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक<br>
+
तिलक की पाषाण-मूर्ति है निःसंग
ताँबे से चेहरे की ऐंठ झलकती।<br>
+
स्तब्ध जड़ीभूत...
पथरीली सलवट<br>
+
देखता हूँ उसको परन्तु, ज्यों ही मैं पास पहुँचता
दियासलाई की पल-भर लौ में<br>
+
पाषाण-पीठिका हिलती-सी लगती
साँप-सी लगती।<br>
+
अरे, अरे यह क्या!!
पर उसके चेहरे का रंग बदलता है हर बार,<br>
+
कण-कण काँप रहे जिनमें-से झरते
मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो...<br>
+
नीले इलेक्ट्रान
वह ताक रहा है--<br>
+
सब ओर गिर रही हैं चिनगियाँ नीली
संगीन नोंकों पर टिका हुआ<br>
+
मूर्ति के तन से झरते हैं अंगार।
साँवला बन्दूक़-जत्था<br>
+
मुस्कान पत्थरी होठों पर काँपी,  
गोल त्रिकोण एक बनाये खड़ा जो<br>
+
आँखों में बिजली के फूल सुलगते।
चौक के बीच में!!<br>
+
इतने में यह क्या!!
एक ओर <br>
+
भव्य ललाट की नासिका में से
टैंकों का दस्ता भी खड़े-खड़े ऊँघता,<br>
+
बह रहा ख़ून न जाने कब से
परन्तु अड़ा है!!<br><br>
+
लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता
 +
(ख़ून के धब्बों से भरा अँगरखा)
 +
मानो कि अतिशय चिन्ता के कारण
 +
मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा
 +
मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से।
 +
हाय, हाय, पितः पितः ओ,
 +
चिन्ता में इतने न उलझो
 +
हम अभी ज़िन्दा हैं ज़िन्दा,  
 +
चिन्ता क्या है!!
 +
मैं उस पाषाण-मूर्ति के ठण्डे
 +
पैरों की छाती से बरबस चिपका
 +
रुआँसा-सा होता
 +
देह में तन गये करुणा के काँटे
 +
छाती पर, सिर पर, बाँहों पर मेरे
 +
गिरती हैं नीली
 +
बिजली की चिनगियाँ
 +
रक्त टपकता है हृदय में मेरे
 +
आत्मा में बहता-सा लगता
 +
ख़ून का तालाब।
 +
इतने में छाती के भीतर ठक्-ठक्
 +
सिर में है धड़-धड़ !! कट रही हड्डी!!
 +
फ़िक्र जबरदस्त!!
 +
विवेक चलाता तीखा-सा रन्दा
 +
चल रहा बासूला
 +
छीले जा रहा मेरा निजत्व ही कोई  
 +
भयानक ज़िद कोई जाग उठी मेरे भी अन्दर
 +
हठ कोई बड़ा भारी उठ खड़ा हुआ है।
 +
इतने में आसमान काँपा व धाँय-धाँय
 +
बन्दूक़ धड़ाका
 +
बिजली की रफ़्तार पैरों में घूम गयी।
 +
खोहों-सी गलियों के अँधेरे में एक ओर
 +
मैं थक बैठ गया,
 +
सोचने-विचारने।
 +
अँधेरे में डूबे मकानों के छप्परों के पार से  
 +
रोने की पतली-सी आवाज़
 +
सूने में काँप रही काँप रही दूर तक
 +
कराहों की लहरों में पाशव प्राकृत
 +
वेदना भयानक थरथरा रही है।
 +
मैं उसे सुनने का करता हूँ यत्न
 +
कि देखता क्या हूँ-  
 +
सामने मेरे
 +
सर्दी में बोरे को ओढ़कर
 +
कोई एक अपने
 +
हाथ-पैर समेटे
 +
काँप रहा, हिल रहा---वह मर जायगा।
 +
इतने में वह सिर खोलता है सहसा
 +
बाल बिखरते
 +
दीखते हैं कान कि
 +
फिर मुँह खोलता है, वह कुछ
 +
बुदबुदा रहा है,
 +
किन्तु मैं सुनता ही नहीं हूँ।
 +
ध्यान से देखता हूँ--वह कोई परिचित
 +
जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार
 +
पर पाया नहीं था।
 +
अरे हाँ, वह तो...
 +
विचार उठते ही दब गये,
 +
सोचने का साहस सब चला गया है।
 +
वह मुख--अरे, वह मुख, वे गाँधी जी!!
 +
इस तरह पंगु!!  
 +
आश्चर्य!! 
 +
नहीं, नहीं वे जाँच-पड़ताल
 +
रूप बदलकर करते हैं चुपचाप।
 +
सुराग़रसी-सी कुछ। 
  
भागता मैं दम छोड़,<br>
+
अँधेरे की स्याही में डूबे हुए देव को सम्मुख पाकर
घूम गया कई मोड़<br>
+
मैं अति दीन हो जाता हूँ पास कि  
भागती है चप्पल, चटपट आवाज़<br>
+
बिजली का झटका
चाँटों-सी पड़ती।<br>
+
कहता है-"भाग जा, हट जा
पैरों के नीचे का कींच उछलकर<br>
+
हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे
चेहरे पर छाती पर, पड़ता है सहसा,<br>
+
आगे तू बढ़ जा।"
ग्लानि की मितली।<br>
+
किन्तु मैं देखा किया उस मुख को।
गलियों का गोल-गोल खोह अँधेरा<br>
+
गम्भीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही,  
चेहरे पर आँखों पर करता है हमला।<br>
+
शब्दों में गुरुता। 
अजीब उमस-बास<br>
+
गलियों का रुँधा हुआ उच्छवास<br>
+
भागता हूँ दम छोड़, <br>
+
घूम गया कई मोड़।<br>
+
धुँधले-से आकार कहीं-कहीं दीखते,<br>
+
भय के? या घर के? कह नहीं सकता<br>
+
आता है अकस्मात् कोलतार-रास्ता<br>
+
लम्बा व चौड़ा व स्याह व ठंडा,<br>
+
बेचैन आँखें ये देखती हैं सब ओर।<br>
+
कहीं कोई नहीं है,<br>
+
नहीं कहीं कोई भी।<br>
+
श्याम आकाश में, संकेत-भाषा-सी तारों की आँखें<br>
+
चमचमा रही हैं।<br>
+
मेरा दिल ढिबरी-सा टिमटिमा रहा है।<br>
+
कोई मुझे खींचता है रास्ते के बीच ही।<br>
+
जादू से बँधा हुआ चल पड़ा उस ओर।<br>
+
सपाट सूने में ऊँची-सी खड़ी जो<br>
+
तिलक की पाषाण-मूर्ति है निःसंग<br>
+
स्तब्ध जड़ीभूत...<br>
+
देखता हूँ उसको परन्तु, ज्यों ही मैं पास पहुँचता<br>
+
पाषाण-पीठिका हिलती-सी लगती<br>
+
अरे, अरे यह क्या!!<br>
+
कण-कण काँप रहे जिनमें-से झरते<br>
+
नीले इलेक्ट्रान<br>
+
सब ओर गिर रही हैं चिनगियाँ नीली<br>
+
मूर्ति के तन से झरते हैं अंगार।<br>
+
मुस्कान पत्थरी होठों पर काँपी,<br>
+
आँखों में बिजली के फूल सुलगते।<br>
+
इतने में यह क्या!!<br>
+
भव्य ललाट की नासिका में से<br>
+
बह रहा ख़ून न जाने कब से<br>
+
लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता<br>
+
(ख़ून के धब्बों से भरा अँगरखा)<br>
+
मानो कि अतिशय चिन्ता के कारण<br>
+
मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा<br>
+
मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से।<br>
+
हाय, हाय, पितः पितः ओ,<br>
+
चिन्ता में इतने न उलझो<br>
+
हम अभी ज़िन्दा हैं ज़िन्दा,<br>
+
चिन्ता क्या है!!<br>
+
मैं उस पाषाण-मूर्ति के ठण्डे<br>
+
पैरों की छाती से बरबस चिपका<br>
+
रुआँसा-सा होता<br>
+
देह में तन गये करुणा के काँटे<br>
+
छाती पर, सिर पर, बाँहों पर मेरे<br>
+
गिरती हैं नीली<br>
+
बिजली की चिनगियाँ<br>
+
रक्त टपकता है हृदय में मेरे<br>
+
आत्मा में बहता-सा लगता<br>
+
ख़ून का तालाब।<br>
+
इतने में छाती के भीतर ठक्-ठक्<br>
+
सिर में है धड़-धड़ !! कट रही हड्डी!!<br>
+
फ़िक्र जबरदस्त!!<br>
+
विवेक चलाता तीखा-सा रन्दा<br>
+
चल रहा बासूला<br>
+
छीले जा रहा मेरा निजत्व ही कोई<br>
+
भयानक ज़िद कोई जाग उठी मेरे भी अन्दर<br>
+
हठ कोई बड़ा भारी उठ खड़ा हुआ है।<br>
+
इतने में आसमान काँपा व धाँय-धाँय<br>
+
बन्दूक़ धड़ाका<br>
+
बिजली की रफ़्तार पैरों में घूम गयी।<br>
+
खोहों-सी गलियों के अँधेरे में एक ओर<br>
+
मैं थक बैठ गया,<br>
+
सोचने-विचारने।<br>
+
अँधेरे में डूबे मकानों के छप्परों के पार से<br>
+
रोने की पतली-सी आवाज़<br>
+
सूने में काँप रही काँप रही दूर तक<br>
+
कराहों की लहरों में पाशव प्राकृत<br>
+
वेदना भयानक थरथरा रही है।<br>
+
मैं उसे सुनने का करता हूँ यत्न<br>
+
कि देखता क्या हूँ-<br>
+
सामने मेरे<br>
+
सर्दी में बोरे को ओढ़कर<br>
+
कोई एक अपने<br>
+
हाथ-पैर समेटे<br>
+
काँप रहा, हिल रहा---वह मर जायगा।<br>
+
इतने में वह सिर खोलता है सहसा<br>
+
बाल बिखरते<br>
+
दीखते हैं कान कि<br>
+
फिर मुँह खोलता है, वह कुछ<br>
+
बुदबुदा रहा है,<br>
+
किन्तु मैं सुनता ही नहीं हूँ।<br>
+
ध्यान से देखता हूँ--वह कोई परिचित<br>
+
जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार<br>
+
पर पाया नहीं था।<br>
+
अरे हाँ, वह तो...<br>
+
विचार उठते ही दब गये,<br>
+
सोचने का साहस सब चला गया है।<br>
+
वह मुख--अरे, वह मुख, वे गाँधी जी!!<br>
+
इस तरह पंगु!!<br>
+
आश्चर्य!! <br>
+
नहीं, नहीं वे जाँच-पड़ताल<br>
+
रूप बदलकर करते हैं चुपचाप।<br>
+
सुराग़रसी-सी कुछ।<br><br>
+
  
अँधेरे की स्याही में डूबे हुए देव को सम्मुख पाकर<br>
+
वे कह रहे हैं--
मैं अति दीन हो जाता हूँ पास कि<br>
+
"दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
बिजली का झटका<br>
+
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कहता है-"भाग जा, हट जा<br>
+
कोई भी मुरग़ा
हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे<br>
+
यदि बाँग दे उठे जोरदार
आगे तू बढ़ जा।"<br>
+
बन जाये मसीहा"  
किन्तु मैं देखा किया उस मुख को।<br>
+
वे कह रहे हैं--
गम्भीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही,<br>
+
मिट्टी के लोंदे में किरगीले कण-कण
शब्दों में गुरुता।<br><br>
+
गुण हैं,
 +
जनता के गुणों से ही सम्भव
 +
भावी का उद्भव ...
 +
गम्भीर शब्द वे और आगे बढ़ गये,  
 +
जाने क्या कह गये!!
 +
मैं अति उद्विग्न! 
  
वे कह रहे हैं--<br>
+
एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर
"दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर<br>
+
मूर्ति की ठठरी।
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट<br>
+
नाक पर चश्मा, हाथ में डण्डा,
कोई भी मुरग़ा<br>
+
कन्धे पर बोरा, बाँह में बच्चा।
यदि बाँग दे उठे जोरदार<br>
+
आश्चर्य!! अद्भुत! यह शिशु कैसे!!
बन जाये मसीहा"<br>
+
मुसकरा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब--  
वे कह रहे हैं--<br>
+
"मेरे पास चुपचाप सोया हुआ  यह था।
मिट्टी के लोंदे में किरगीले कण-कण<br>
+
सँभालना इसको, सुरक्षित रखना" 
गुण हैं,<br>
+
जनता के गुणों से ही सम्भव<br>
+
भावी का उद्भव ...<br>
+
गम्भीर शब्द वे और आगे बढ़ गये,<br>
+
जाने क्या कह गये!!<br>
+
मैं अति उद्विग्न!<br><br>
+
  
एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर<br>
+
मैं कुछ कहने को होता हूँ इतने में वहाँ पर  
मूर्ति की ठठरी।<br>
+
कहीं कोई नहीं है, कहीं कोई नहीं है:
नाक पर चश्मा, हाथ में डण्डा,<br>
+
और ज़्यादा गहरा व और ज़्यादा अकेला
कन्धे पर बोरा, बाँह में बच्चा।<br>
+
अँधेरे का फैलाव!  
आश्चर्य!! अद्भुत! यह शिशु कैसे!!<br>
+
बालक लिपटा है मेरे इस गले से चुपचाप,
मुसकरा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब--<br>
+
छाती से कन्धे से चिपका है नन्हा-सा आकाश
"मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था।<br>
+
स्पर्श है सुकुमार प्यार-भरा कोमल
सँभालना इसको, सुरक्षित रखना"<br><br>
+
किन्तु है भार का गम्भीर अनुभव
 +
भावी की गन्ध और दूरियाँ अँधेरी
 +
आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं
 +
चला जा रहा हूँ
 +
घुसता ही जाता हूँ फ़ासलों की खोहों तहों में।  
  
मैं कुछ कहने को होता हूँ इतने में वहाँ पर<br>
+
सहसा रो उठा कन्धे पर वह शिशु
कहीं कोई नहीं है, कहीं कोई नहीं है:<br>
+
अरे, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित!!
और ज़्यादा गहरा व और ज़्यादा अकेला<br>
+
पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना था,
अँधेरे का फैलाव!<br>
+
उसमें तो स्फोटक क्षोभ का आयेगा,
बालक लिपटा है मेरे इस गले से चुपचाप,<br>
+
गहरी है शिकायत,  
छाती से कन्धे से चिपका है नन्हा-सा आकाश<br>
+
क्रोध भयंकर।
स्पर्श है सुकुमार प्यार-भरा कोमल<br>
+
मुझे डर यदि कोई वह स्वर सुन ले
किन्तु है भार का गम्भीर अनुभव<br>
+
हम दोनों फिर कहीं नहीं रह सकेंगे।
भावी की गन्ध और दूरियाँ अँधेरी<br>
+
मैं पुचकारता हूँ, बहुत दुलारता,
आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं<br>
+
समझाने के लिए तब गाता हूँ गाने,
चला जा रहा हूँ<br>
+
अधभूली लोरी ही होठों से फूटती!
घुसता ही जाता हूँ फ़ासलों की खोहों तहों में।<br><br>
+
मैं चुप करने की जितनी भी करता हूँ कोशिश,
 +
और-और चीख़ता है क्रोध से लगातार!!
 +
गरम-गरम अश्रु टपकते हैं मुझपर। 
  
सहसा रो उठा कन्धे पर वह शिशु<br>
+
किन्तु, न जाने क्यों ख़ुश बहुत हूँ।
अरे, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित!!<br>
+
जिसको न मैं जीवन में कर पाया,  
पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना था,<br>
+
वह कर रहा है।
उसमें तो स्फोटक क्षोभ का आयेगा,<br>
+
मैं शिशु-पीठ थपथपा रहा हूँ,  
गहरी है शिकायत,<br>
+
आत्मा है गीली।
क्रोध भयंकर।<br>
+
पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे जा रहा।
मुझे डर यदि कोई वह स्वर सुन ले<br>
+
डूबता हूँ मैं किसी भीतरी सोच में--
हम दोनों फिर कहीं नहीं रह सकेंगे।<br>
+
हृदय के थाले में रक्त का तालाब,  
मैं पुचकारता हूँ, बहुत दुलारता,<br>
+
रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँ,
समझाने के लिए तब गाता हूँ गाने,<br>
+
रुधिर से फूट रहीं लाल-लाल किरणें,
अधभूली लोरी ही होठों से फूटती!<br>
+
अनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्प,  
मैं चुप करने की जितनी भी करता हूँ कोशिश,<br>
+
और ये संकल्प
और-और चीख़ता है क्रोध से लगातार!!<br>
+
चलते हैं साथ-साथ।
गरम-गरम अश्रु टपकते हैं मुझपर।<br><br>
+
अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ। 
  
किन्तु, न जाने क्यों ख़ुश बहुत हूँ।<br>
+
इतने में पाता हूँ अँधेरे में सहसा
जिसको न मैं जीवन में कर पाया,<br>
+
कन्धे पर कुछ नहीं!!
वह कर रहा है।<br>
+
वह शिशु
मैं शिशु-पीठ थपथपा रहा हूँ,<br>
+
चला गया जाने कहाँ,  
आत्मा है गीली।<br>
+
और अब उसके ही स्थान पर
पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे जा रहा।<br>
+
मात्र हैं सूरज-मुखी-फूल-गुच्छे।
डूबता हूँ मैं किसी भीतरी सोच में--<br>
+
उन स्वर्ण-पुष्पों से प्रकाश-विकीरण
हृदय के थाले में रक्त का तालाब,<br>
+
कन्धों पर, सिर पर, गालों पर, तन पर,  
रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँ,<br>
+
रास्ते पर, फैले हैं किरणों के कण-कण।
रुधिर से फूट रहीं लाल-लाल किरणें,<br>
+
भई वाह, यह खूब!! 
अनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्प,<br>
+
और ये संकल्प<br>
+
चलते हैं साथ-साथ।<br>
+
अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ।<br><br>
+
  
इतने में पाता हूँ अँधेरे में सहसा<br>
+
इतने गली एक आ गयी और मैं
कन्धे पर कुछ नहीं!!<br>
+
दरवाज़ा खुला हुआ देखता।
वह शिशु<br>
+
ज़ीना है अँधेरा।
चला गया जाने कहाँ,<br>
+
कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है!
और अब उसके ही स्थान पर<br>
+
मैं बढ़ रहा हूँ  
मात्र हैं सूरज-मुखी-फूल-गुच्छे।<br>
+
कन्धों पर फूलों के लम्बे वे गुच्छे
उन स्वर्ण-पुष्पों से प्रकाश-विकीरण<br>
+
क्या हुए, कहाँ गये?
कन्धों पर, सिर पर, गालों पर, तन पर,<br>
+
कन्धे क्यों वज़न से दुख रहे सहसा।
रास्ते पर, फैले हैं किरणों के कण-कण।<br>
+
ओ हो,
भई वाह, यह खूब!!<br><br>
+
बन्दूक आ गयी
 +
वाह वा...!!  
 +
वज़नदार रॉयफ़ल
 +
भई खूब!!
 +
खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,  
 +
झाँकते हैं खिड़कियों में से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे
 +
फैली है बर्फ़ीली साँस-सी वीरान,
 +
तितर-बितर सब फैला है सामान।
 +
बीच में कोई ज़मीन पर पसरा,  
 +
फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आख़िर।
 +
मैं उस जन पर फैलाता टार्च कि यह क्या--
 +
ख़ून भरे बाल में उलझा है चेहरा,  
 +
भौहों के बीच में गोली का सूराख़,
 +
ख़ून का परदा गालों पर फैला,  
 +
होठों पर सूखी है कत्थई धारा,  
 +
फूटा है चश्मा नाक है सीधी,
 +
ओफ्फो!! एकान्त-प्रिय यह मेरा
 +
परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ,
 +
सचाई थी सिर्फ़ एक अहसास
 +
वह कलाकार था
 +
गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था
 +
पर, कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति,
 +
चलाता था अपना असंग अस्तित्व।
 +
सुकुमार मानवीय हृदयों के अपने
 +
शुचितर विश्व के मात्र थे सपने।
 +
स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो--  
 +
हलचल करता था रह-रह दिल में
 +
किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो।
 +
शून्य के जल में डूब गया नीरव
 +
हो नहीं पाया  उपयोग उसका।
 +
किन्तु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुज़रा कि
 +
सन्देहास्पद समझा गया और
 +
मारा गया वह बधिकों के हाथों।
 +
मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अन्तर
 +
मुक्ति के यत्नों के साथ निरन्तर
 +
सबका था प्यारा।
 +
अपने में द्युतिमान।
 +
उनका यों वध हुआ,  
 +
मर गया एक युग,
 +
मर गया एक जीवनादर्श!!
 +
इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई।
 +
सवाल है-- मैं क्या करता था अब तक,
 +
भागता फिरता था सब ओर।
 +
(फ़िजूल है इस वक़्त कोसना ख़ुद को)
 +
एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूँ
 +
पाऊँ मैं नये-नये सहचर
 +
सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!
  
इतने गली एक आ गयी और मैं<br>
+
ज़ीने से उतरा
दरवाज़ा खुला हुआ देखता।<br>
+
एकाएक विद्रूप रूपों से घिर गया सहसा
ज़ीना है अँधेरा।<br>
+
पकड़ मशीन-सी,  
कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है!<br>
+
भयानक आकार घेरते हैं मुझको,  
मैं बढ़ रहा हूँ<br>
+
मैं आततायी-सत्ता के सम्मुख।  
कन्धों पर फूलों के लम्बे वे गुच्छे<br>
+
क्या हुए, कहाँ गये?<br>
+
कन्धे क्यों वज़न से दुख रहे सहसा।<br>
+
ओ हो,<br>
+
बन्दूक आ गयी<br>
+
वाह वा...!!<br>
+
वज़नदार रॉयफ़ल<br>
+
भई खूब!!<br>
+
खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,<br>
+
झाँकते हैं खिड़कियों में से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे<br>
+
फैली है बर्फ़ीली साँस-सी वीरान,<br>
+
तितर-बितर सब फैला है सामान।<br>
+
बीच में कोई ज़मीन पर पसरा,<br>
+
फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आख़िर।<br>
+
मैं उस जन पर फैलाता टार्च कि यह क्या--<br>
+
ख़ून भरे बाल में उलझा है चेहरा,<br>
+
भौहों के बीच में गोली का सूराख़,<br>
+
ख़ून का परदा गालों पर फैला,<br>
+
होठों पर सूखी है कत्थई धारा,<br>
+
फूटा है चश्मा नाक है सीधी,<br>
+
ओफ्फो!! एकान्त-प्रिय यह मेरा<br>
+
परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ,<br>
+
सचाई थी सिर्फ़ एक अहसास<br>
+
वह कलाकार था<br>
+
गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था<br>
+
पर, कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति,<br>
+
चलाता था अपना असंग अस्तित्व।<br>
+
सुकुमार मानवीय हृदयों के अपने<br>
+
शुचितर विश्व के मात्र थे सपने।<br>
+
स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो--<br>
+
हलचल करता था रह-रह दिल में<br>
+
किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो।<br>
+
शून्य के जल में डूब गया नीरव<br>
+
हो नहीं पाया उपयोग उसका।<br>
+
किन्तु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुज़रा कि<br>
+
सन्देहास्पद समझा गया और<br>
+
मारा गया वह बधिकों के हाथों।<br>
+
मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अन्तर<br>
+
मुक्ति के यत्नों के साथ निरन्तर<br>
+
सबका था प्यारा।<br>
+
अपने में द्युतिमान।<br>
+
उनका यों वध हुआ,<br>
+
मर गया एक युग,<br>
+
मर गया एक जीवनादर्श!!<br>
+
इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई।<br>
+
सवाल है-- मैं क्या करता था अब तक,<br>
+
भागता फिरता था सब ओर।<br>
+
(फ़िजूल है इस वक़्त कोसना ख़ुद को)<br>
+
एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूँ<br>
+
पाऊँ मैं नये-नये सहचर<br>
+
सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!<br><br>
+
  
ज़ीने से उतरा<br>
+
एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ!!
एकाएक विद्रूप रूपों से घिर गया सहसा<br>
+
भयानक सनसनी।
पकड़ मशीन-सी,<br>
+
पकड़कर कॉलर गला दबाया गया।
भयानक आकार घेरते हैं मुझको,<br>
+
चाँटे से कनपटी टूटी कि अचानक
मैं आततायी-सत्ता के सम्मुख।<br><br>
+
त्वचा उखड़ गयी गाल की पूरी।
 +
कान में भर गयी
 +
भयानक अनहद-नाद की भनभन।
 +
आँखों में तैरीं रक्तिम तितलियाँ, चिनगियाँ नीली।
 +
सामने ऊगते-डूबते धूँधले
 +
कुहरिल वर्तुल,
 +
जिनका कि चक्रिल केन्द्र ही फैलता जाता
 +
उस फैलाव में दीखते मुझको  
 +
धँस रहे, गिर रहे बड़े-बड़े टॉवर 
 +
घुँघराला धूआँ, गेरूआ ज्वाला। 
 +
हृदय में भगदड़--
 +
सम्मुख दीखा
 +
उजाड़ बंजर टीले पर सहसा
 +
रो उठा कोई, रो रहा कोई
 +
भागता कोई सहायता देने।
 +
अन्तर्तत्त्वों का पुनर्प्रबंध और पुनर्व्यवस्था
 +
पुनर्गठन-सा होता जा रहा। 
  
एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ!!<br>
+
दृश्य ही बदला, चित्र बदल गया
भयानक सनसनी।<br>
+
जबरन ले जाया गया मैं गहरे
पकड़कर कॉलर गला दबाया गया।<br>
+
अँधियारे कमरे के स्याह सिफ़र में।
चाँटे से कनपटी टूटी कि अचानक<br>
+
टूटे-से स्टूल में बिठाया गया हूँ।
त्वचा उखड़ गयी गाल की पूरी।<br>
+
शीश की हड्डी जा रही तोड़ी।
कान में भर गयी<br>
+
लोहे की कील पर बड़े हथौड़े
भयानक अनहद-नाद की भनभन।<br>
+
पड़ रहे लगातार।
आँखों में तैरीं रक्तिम तितलियाँ, चिनगियाँ नीली।<br>
+
शीश का मोटा अस्थि-कवच ही निकाल डाला।
सामने ऊगते-डूबते धूँधले<br>
+
देखा जा रहा--
कुहरिल वर्तुल,<br>
+
मस्तक-यन्त्र में कौन विचारों की कौन-सी ऊर्जा,  
जिनका कि चक्रिल केन्द्र ही फैलता जाता<br>
+
कौन-सी शिरा में कौन-सी धक्-धक्,  
उस फैलाव में दीखते मुझको<br>
+
कौन-सी रग में कौन-सी फुरफुरी, 
धँस रहे, गिर रहे बड़े-बड़े टॉवर <br>
+
कहाँ है पश्यत् कैमरा जिसमें
घुँघराला धूआँ, गेरूआ ज्वाला। <br>
+
तथ्यों के जीवन-दृश्य उतरते,  
हृदय में भगदड़--<br>
+
कहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय
सम्मुख दीखा<br>
+
कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान!
उजाड़ बंजर टीले पर सहसा<br>
+
भीतर कहीं पर गड़े हुए गहरे
रो उठा कोई, रो रहा कोई<br>
+
तलघर अन्दर
भागता कोई सहायता देने।<br>
+
छिपे हुए प्रिण्टिंग प्रेस को खोजो।
अन्तर्तत्त्वों का पुनर्प्रबंध और पुनर्व्यवस्था<br>
+
जहाँ कि चुपचाप ख़यालों के परचे
पुनर्गठन-सा होता जा रहा।<br><br>
+
छपते रहते हैं, बाँटे जाते।
 +
इस संस्था के सेक्रेट्री को खोज निकालो,
 +
शायद, उसका ही नाम हो आस्था,
 +
कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का  
 +
कहाँ है आत्मा?
 +
(और, मैं सुनता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची
 +
खिझलायी आवाज)
 +
स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता,
 +
क्रॉस एक्जामिन हिम थॉरोली!! 
  
दृश्य ही बदला, चित्र बदल गया<br>
+
चाबुक-चमकार
जबरन ले जाया गया मैं गहरे<br>
+
पीठ पर यद्यपि
अँधियारे कमरे के स्याह सिफ़र में।<br>
+
उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं
टूटे-से स्टूल में बिठाया गया हूँ।<br>
+
पर, यह आत्मा कुशल बहुत है,
शीश की हड्डी जा रही तोड़ी।<br>
+
देह में रेंग रही संवेदना की गरमीली कड़ुई धारा गहरी
लोहे की कील पर बड़े हथौड़े<br>
+
झनझन थरथर तारों को उसके,
पड़ रहे लगातार।<br>
+
समेटकर वह सब
शीश का मोटा अस्थि-कवच ही निकाल डाला।<br>
+
वेदना-विस्तार करके इकट्ठा
देखा जा रहा--<br>
+
मेरा मन यह
मस्तक-यन्त्र में कौन विचारों की कौन-सी ऊर्जा,<br>
+
जबरन उसकी छोटी-सी कड्ढी
कौन-सी शिरा में कौन-सी धक्-धक्,<br>
+
गठान बाँधता सख़्त व मज़बूत
कौन-सी रग में कौन-सी फुरफुरी, <br>
+
मानो कि पत्थर।
कहाँ है पश्यत् कैमरा जिसमें<br>
+
ज़ोर लगाकर,  
तथ्यों के जीवन-दृश्य उतरते,<br>
+
उसी गठान को हथेलियों से
कहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय<br>
+
करता है चूर-चूर,  
कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान!<br>
+
धूल में बिखरा देता है उसको।
भीतर कहीं पर गड़े हुए गहरे<br>
+
मन यह हटता है देह की हद से
तलघर अन्दर<br>
+
जाता है कहीं पर अलग जगत् में।
छिपे हुए प्रिण्टिंग प्रेस को खोजो।<br>
+
विचित्र क्षण है,  
जहाँ कि चुपचाप ख़यालों के परचे<br>
+
सिर्फ़ है जादू,  
छपते रहते हैं, बाँटे जाते।<br>
+
मात्र मैं बिजली
इस संस्था के सेक्रेट्री को खोज निकालो,<br>
+
यद्यपि खोह में खूँटे बँधा हूँ
शायद, उसका ही नाम हो आस्था,<br>
+
दैत्य है आस-पास
कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का<br>
+
फिर भी बहुत दूर मीलों के पार वहाँ
कहाँ है आत्मा?<br>
+
गिरता हूँ चुपचाप पत्र के रूप में
(और, मैं सुनता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची<br>
+
किसी एक जेब में
खिझलायी आवाज)<br>
+
वह जेब...
स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता,<br>
+
किसी एक फटे हुए मन की। 
क्रॉस एक्जामिन हिम थॉरोली!!<br><br>
+
  
चाबुक-चमकार<br>
+
समस्वर, समताल,  
पीठ पर यद्यपि<br>
+
सहानुभूति की सनसनी कोमल!!  
उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं<br>
+
हम कहाँ नहीं हैं  
पर, यह आत्मा कुशल बहुत है,<br>
+
सभी जगह हम।  
देह में रेंग रही संवेदना की गरमीली कड़ुई धारा गहरी<br>
+
निजता हमारी?  
झनझन थरथर तारों को उसके,<br>
+
भीतर-भीतर बिजली के जीवित  
समेटकर वह सब<br>
+
तारों के जाले,  
वेदना-विस्तार करके इकट्ठा<br>
+
ज्वलन्त तारों की भीषण गुत्थी,  
मेरा मन यह<br>
+
बाहर-बाहर धूल-सी भूरी  
जबरन उसकी छोटी-सी कड्ढी<br>
+
ज़मीन की पपड़ी  
गठान बाँधता सख़्त व मज़बूत<br>
+
अग्नि को लेकर, मस्तक हिमवत्,  
मानो कि पत्थर।<br>
+
उग्र प्रभंजन लेकर, उर यह  
ज़ोर लगाकर,<br>
+
बिलकुल निश्चल।  
उसी गठान को हथेलियों से<br>
+
भीषण शक्ति को धारण करके  
करता है चूर-चूर,<br>
+
आत्मा का पोशाक दीन व मैला।  
धूल में बिखरा देता है उसको।<br>
+
विचित्र रूपों को धारण करके  
मन यह हटता है देह की हद से<br>
+
चलता है जीवन, लक्ष्यों के पथ पर।  
जाता है कहीं पर अलग जगत् में।<br>
+
</poem>
विचित्र क्षण है,<br>
+
सिर्फ़ है जादू,<br>
+
मात्र मैं बिजली<br>
+
यद्यपि खोह में खूँटे बँधा हूँ<br>
+
दैत्य है आस-पास<br>
+
फिर भी बहुत दूर मीलों के पार वहाँ<br>
+
गिरता हूँ चुपचाप पत्र के रूप में<br>
+
किसी एक जेब में<br>
+
वह जेब...<br>
+
किसी एक फटे हुए मन की।<br><br>
+
 
+
समस्वर, समताल,<br>
+
सहानुभूति की सनसनी कोमल!!<br>
+
हम कहाँ नहीं हैं<br>
+
सभी जगह हम।<br>
+
निजता हमारी?<br>
+
भीतर-भीतर बिजली के जीवित<br>
+
तारों के जाले,<br>
+
ज्वलन्त तारों की भीषण गुत्थी,<br>
+
बाहर-बाहर धूल-सी भूरी<br>
+
ज़मीन की पपड़ी<br>
+
अग्नि को लेकर, मस्तक हिमवत्,<br>
+
उग्र प्रभंजन लेकर, उर यह<br>
+
बिलकुल निश्चल।<br>
+
भीषण शक्ति को धारण करके<br>
+
आत्मा का पोशाक दीन व मैला।<br>
+
विचित्र रूपों को धारण करके<br>
+
चलता है जीवन, लक्ष्यों के पथ पर।<br>
+

12:54, 26 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

सीन बदलता है
सुनसान चौराहा साँवला फैला,
बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर,
ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद,
साँवली हवाओं में काल टहलता है।
रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,
मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,
चार अलग कोण,
कि चार अलग संकेत
(मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ)
खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं,
शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास
बेचैन ख़यालों के पंखों के कीड़े
उड़ते हैं गोल-गोल
मचल-मचलकर।
घण्टाघर तले ही
पंखों के टुकड़े व तिनके।
गुम्बद-विवर में बैठे हुए बूढ़े
असम्भव पक्षी
बहुत तेज़ नज़रों से देखते हैं सब ओर,
मानो कि इरादे
भयानक चमकते।
सुनसान चौराहा
बिखरी हैं गतियाँ, बिखरी है रफ़्तार,
गश्त में घूमती है कोई दुष्ट इच्छा।
भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक में
अँधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक
ताँबे से चेहरे की ऐंठ झलकती।
पथरीली सलवट
दियासलाई की पल-भर लौ में
साँप-सी लगती।
पर उसके चेहरे का रंग बदलता है हर बार,
मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो...
वह ताक रहा है--
संगीन नोंकों पर टिका हुआ
साँवला बन्दूक़-जत्था
गोल त्रिकोण एक बनाये खड़ा जो
चौक के बीच में!!
एक ओर
टैंकों का दस्ता भी खड़े-खड़े ऊँघता,
परन्तु अड़ा है!!

भागता मैं दम छोड़,
घूम गया कई मोड़
भागती है चप्पल, चटपट आवाज़
चाँटों-सी पड़ती।
पैरों के नीचे का कींच उछलकर
चेहरे पर छाती पर, पड़ता है सहसा,
ग्लानि की मितली।
गलियों का गोल-गोल खोह अँधेरा
चेहरे पर आँखों पर करता है हमला।
अजीब उमस-बास
गलियों का रुँधा हुआ उच्छवास
भागता हूँ दम छोड़,
घूम गया कई मोड़।
धुँधले-से आकार कहीं-कहीं दीखते,
भय के? या घर के? कह नहीं सकता
आता है अकस्मात् कोलतार-रास्ता
लम्बा व चौड़ा व स्याह व ठंडा,
बेचैन आँखें ये देखती हैं सब ओर।
कहीं कोई नहीं है,
नहीं कहीं कोई भी।
श्याम आकाश में, संकेत-भाषा-सी तारों की आँखें
चमचमा रही हैं।
मेरा दिल ढिबरी-सा टिमटिमा रहा है।
कोई मुझे खींचता है रास्ते के बीच ही।
जादू से बँधा हुआ चल पड़ा उस ओर।
सपाट सूने में ऊँची-सी खड़ी जो
तिलक की पाषाण-मूर्ति है निःसंग
स्तब्ध जड़ीभूत...
देखता हूँ उसको परन्तु, ज्यों ही मैं पास पहुँचता
पाषाण-पीठिका हिलती-सी लगती
अरे, अरे यह क्या!!
कण-कण काँप रहे जिनमें-से झरते
नीले इलेक्ट्रान
सब ओर गिर रही हैं चिनगियाँ नीली
मूर्ति के तन से झरते हैं अंगार।
मुस्कान पत्थरी होठों पर काँपी,
आँखों में बिजली के फूल सुलगते।
इतने में यह क्या!!
भव्य ललाट की नासिका में से
बह रहा ख़ून न जाने कब से
लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता
(ख़ून के धब्बों से भरा अँगरखा)
मानो कि अतिशय चिन्ता के कारण
मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा
मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से।
हाय, हाय, पितः पितः ओ,
चिन्ता में इतने न उलझो
हम अभी ज़िन्दा हैं ज़िन्दा,
चिन्ता क्या है!!
मैं उस पाषाण-मूर्ति के ठण्डे
पैरों की छाती से बरबस चिपका
रुआँसा-सा होता
देह में तन गये करुणा के काँटे
छाती पर, सिर पर, बाँहों पर मेरे
गिरती हैं नीली
बिजली की चिनगियाँ
रक्त टपकता है हृदय में मेरे
आत्मा में बहता-सा लगता
ख़ून का तालाब।
इतने में छाती के भीतर ठक्-ठक्
सिर में है धड़-धड़ !! कट रही हड्डी!!
फ़िक्र जबरदस्त!!
विवेक चलाता तीखा-सा रन्दा
चल रहा बासूला
छीले जा रहा मेरा निजत्व ही कोई
भयानक ज़िद कोई जाग उठी मेरे भी अन्दर
हठ कोई बड़ा भारी उठ खड़ा हुआ है।
इतने में आसमान काँपा व धाँय-धाँय
बन्दूक़ धड़ाका
बिजली की रफ़्तार पैरों में घूम गयी।
खोहों-सी गलियों के अँधेरे में एक ओर
मैं थक बैठ गया,
सोचने-विचारने।
अँधेरे में डूबे मकानों के छप्परों के पार से
रोने की पतली-सी आवाज़
सूने में काँप रही काँप रही दूर तक
कराहों की लहरों में पाशव प्राकृत
वेदना भयानक थरथरा रही है।
मैं उसे सुनने का करता हूँ यत्न
कि देखता क्या हूँ-
सामने मेरे
सर्दी में बोरे को ओढ़कर
कोई एक अपने
हाथ-पैर समेटे
काँप रहा, हिल रहा---वह मर जायगा।
इतने में वह सिर खोलता है सहसा
बाल बिखरते
दीखते हैं कान कि
फिर मुँह खोलता है, वह कुछ
बुदबुदा रहा है,
किन्तु मैं सुनता ही नहीं हूँ।
ध्यान से देखता हूँ--वह कोई परिचित
जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार
पर पाया नहीं था।
अरे हाँ, वह तो...
विचार उठते ही दब गये,
सोचने का साहस सब चला गया है।
वह मुख--अरे, वह मुख, वे गाँधी जी!!
इस तरह पंगु!!
आश्चर्य!!
नहीं, नहीं वे जाँच-पड़ताल
रूप बदलकर करते हैं चुपचाप।
सुराग़रसी-सी कुछ।

अँधेरे की स्याही में डूबे हुए देव को सम्मुख पाकर
मैं अति दीन हो जाता हूँ पास कि
बिजली का झटका
कहता है-"भाग जा, हट जा
हम हैं गुज़र गये ज़माने के चेहरे
आगे तू बढ़ जा।"
किन्तु मैं देखा किया उस मुख को।
गम्भीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही,
शब्दों में गुरुता।

वे कह रहे हैं--
"दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुरग़ा
यदि बाँग दे उठे जोरदार
बन जाये मसीहा"
वे कह रहे हैं--
मिट्टी के लोंदे में किरगीले कण-कण
गुण हैं,
जनता के गुणों से ही सम्भव
भावी का उद्भव ...
गम्भीर शब्द वे और आगे बढ़ गये,
जाने क्या कह गये!!
मैं अति उद्विग्न!

एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर
मूर्ति की ठठरी।
नाक पर चश्मा, हाथ में डण्डा,
कन्धे पर बोरा, बाँह में बच्चा।
आश्चर्य!! अद्भुत! यह शिशु कैसे!!
मुसकरा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब--
"मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था।
सँभालना इसको, सुरक्षित रखना"

मैं कुछ कहने को होता हूँ इतने में वहाँ पर
कहीं कोई नहीं है, कहीं कोई नहीं है:
और ज़्यादा गहरा व और ज़्यादा अकेला
अँधेरे का फैलाव!
बालक लिपटा है मेरे इस गले से चुपचाप,
छाती से कन्धे से चिपका है नन्हा-सा आकाश
स्पर्श है सुकुमार प्यार-भरा कोमल
किन्तु है भार का गम्भीर अनुभव
भावी की गन्ध और दूरियाँ अँधेरी
आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं
चला जा रहा हूँ
घुसता ही जाता हूँ फ़ासलों की खोहों तहों में।

सहसा रो उठा कन्धे पर वह शिशु
अरे, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित!!
पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना था,
उसमें तो स्फोटक क्षोभ का आयेगा,
गहरी है शिकायत,
क्रोध भयंकर।
मुझे डर यदि कोई वह स्वर सुन ले
हम दोनों फिर कहीं नहीं रह सकेंगे।
मैं पुचकारता हूँ, बहुत दुलारता,
समझाने के लिए तब गाता हूँ गाने,
अधभूली लोरी ही होठों से फूटती!
मैं चुप करने की जितनी भी करता हूँ कोशिश,
और-और चीख़ता है क्रोध से लगातार!!
गरम-गरम अश्रु टपकते हैं मुझपर।

किन्तु, न जाने क्यों ख़ुश बहुत हूँ।
जिसको न मैं जीवन में कर पाया,
वह कर रहा है।
मैं शिशु-पीठ थपथपा रहा हूँ,
आत्मा है गीली।
पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे जा रहा।
डूबता हूँ मैं किसी भीतरी सोच में--
हृदय के थाले में रक्त का तालाब,
रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँ,
रुधिर से फूट रहीं लाल-लाल किरणें,
अनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्प,
और ये संकल्प
चलते हैं साथ-साथ।
अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ।

इतने में पाता हूँ अँधेरे में सहसा
कन्धे पर कुछ नहीं!!
वह शिशु
चला गया जाने कहाँ,
और अब उसके ही स्थान पर
मात्र हैं सूरज-मुखी-फूल-गुच्छे।
उन स्वर्ण-पुष्पों से प्रकाश-विकीरण
कन्धों पर, सिर पर, गालों पर, तन पर,
रास्ते पर, फैले हैं किरणों के कण-कण।
भई वाह, यह खूब!!

इतने गली एक आ गयी और मैं
दरवाज़ा खुला हुआ देखता।
ज़ीना है अँधेरा।
कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है!
मैं बढ़ रहा हूँ
कन्धों पर फूलों के लम्बे वे गुच्छे
क्या हुए, कहाँ गये?
कन्धे क्यों वज़न से दुख रहे सहसा।
ओ हो,
बन्दूक आ गयी
वाह वा...!!
वज़नदार रॉयफ़ल
भई खूब!!
खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,
झाँकते हैं खिड़कियों में से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे
फैली है बर्फ़ीली साँस-सी वीरान,
तितर-बितर सब फैला है सामान।
बीच में कोई ज़मीन पर पसरा,
फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आख़िर।
मैं उस जन पर फैलाता टार्च कि यह क्या--
ख़ून भरे बाल में उलझा है चेहरा,
भौहों के बीच में गोली का सूराख़,
ख़ून का परदा गालों पर फैला,
होठों पर सूखी है कत्थई धारा,
फूटा है चश्मा नाक है सीधी,
ओफ्फो!! एकान्त-प्रिय यह मेरा
परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ,
सचाई थी सिर्फ़ एक अहसास
वह कलाकार था
गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था
पर, कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति,
चलाता था अपना असंग अस्तित्व।
सुकुमार मानवीय हृदयों के अपने
शुचितर विश्व के मात्र थे सपने।
स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो--
हलचल करता था रह-रह दिल में
किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो।
शून्य के जल में डूब गया नीरव
हो नहीं पाया उपयोग उसका।
किन्तु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुज़रा कि
सन्देहास्पद समझा गया और
मारा गया वह बधिकों के हाथों।
मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अन्तर
मुक्ति के यत्नों के साथ निरन्तर
सबका था प्यारा।
अपने में द्युतिमान।
उनका यों वध हुआ,
मर गया एक युग,
मर गया एक जीवनादर्श!!
इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई।
सवाल है-- मैं क्या करता था अब तक,
भागता फिरता था सब ओर।
(फ़िजूल है इस वक़्त कोसना ख़ुद को)
एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूँ
पाऊँ मैं नये-नये सहचर
सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!

ज़ीने से उतरा
एकाएक विद्रूप रूपों से घिर गया सहसा
पकड़ मशीन-सी,
भयानक आकार घेरते हैं मुझको,
मैं आततायी-सत्ता के सम्मुख।

एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ!!
भयानक सनसनी।
पकड़कर कॉलर गला दबाया गया।
चाँटे से कनपटी टूटी कि अचानक
त्वचा उखड़ गयी गाल की पूरी।
कान में भर गयी
भयानक अनहद-नाद की भनभन।
आँखों में तैरीं रक्तिम तितलियाँ, चिनगियाँ नीली।
सामने ऊगते-डूबते धूँधले
कुहरिल वर्तुल,
जिनका कि चक्रिल केन्द्र ही फैलता जाता
उस फैलाव में दीखते मुझको
धँस रहे, गिर रहे बड़े-बड़े टॉवर
घुँघराला धूआँ, गेरूआ ज्वाला।
हृदय में भगदड़--
सम्मुख दीखा
उजाड़ बंजर टीले पर सहसा
रो उठा कोई, रो रहा कोई
भागता कोई सहायता देने।
अन्तर्तत्त्वों का पुनर्प्रबंध और पुनर्व्यवस्था
पुनर्गठन-सा होता जा रहा।

दृश्य ही बदला, चित्र बदल गया
जबरन ले जाया गया मैं गहरे
अँधियारे कमरे के स्याह सिफ़र में।
टूटे-से स्टूल में बिठाया गया हूँ।
शीश की हड्डी जा रही तोड़ी।
लोहे की कील पर बड़े हथौड़े
पड़ रहे लगातार।
शीश का मोटा अस्थि-कवच ही निकाल डाला।
देखा जा रहा--
मस्तक-यन्त्र में कौन विचारों की कौन-सी ऊर्जा,
कौन-सी शिरा में कौन-सी धक्-धक्,
कौन-सी रग में कौन-सी फुरफुरी,
कहाँ है पश्यत् कैमरा जिसमें
तथ्यों के जीवन-दृश्य उतरते,
कहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय
कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान!
भीतर कहीं पर गड़े हुए गहरे
तलघर अन्दर
छिपे हुए प्रिण्टिंग प्रेस को खोजो।
जहाँ कि चुपचाप ख़यालों के परचे
छपते रहते हैं, बाँटे जाते।
इस संस्था के सेक्रेट्री को खोज निकालो,
शायद, उसका ही नाम हो आस्था,
कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का
कहाँ है आत्मा?
(और, मैं सुनता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची
खिझलायी आवाज)
स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता,
क्रॉस एक्जामिन हिम थॉरोली!!

चाबुक-चमकार
पीठ पर यद्यपि
उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं
पर, यह आत्मा कुशल बहुत है,
देह में रेंग रही संवेदना की गरमीली कड़ुई धारा गहरी
झनझन थरथर तारों को उसके,
समेटकर वह सब
वेदना-विस्तार करके इकट्ठा
मेरा मन यह
जबरन उसकी छोटी-सी कड्ढी
गठान बाँधता सख़्त व मज़बूत
मानो कि पत्थर।
ज़ोर लगाकर,
उसी गठान को हथेलियों से
करता है चूर-चूर,
धूल में बिखरा देता है उसको।
मन यह हटता है देह की हद से
जाता है कहीं पर अलग जगत् में।
विचित्र क्षण है,
सिर्फ़ है जादू,
मात्र मैं बिजली
यद्यपि खोह में खूँटे बँधा हूँ
दैत्य है आस-पास
फिर भी बहुत दूर मीलों के पार वहाँ
गिरता हूँ चुपचाप पत्र के रूप में
किसी एक जेब में
वह जेब...
किसी एक फटे हुए मन की।

समस्वर, समताल,
सहानुभूति की सनसनी कोमल!!
हम कहाँ नहीं हैं
सभी जगह हम।
निजता हमारी?
भीतर-भीतर बिजली के जीवित
तारों के जाले,
ज्वलन्त तारों की भीषण गुत्थी,
बाहर-बाहर धूल-सी भूरी
ज़मीन की पपड़ी
अग्नि को लेकर, मस्तक हिमवत्,
उग्र प्रभंजन लेकर, उर यह
बिलकुल निश्चल।
भीषण शक्ति को धारण करके
आत्मा का पोशाक दीन व मैला।
विचित्र रूपों को धारण करके
चलता है जीवन, लक्ष्यों के पथ पर।