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"आखरी कलाम / मलिक मोहम्मद जायसी" के अवतरणों में अंतर

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* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 1 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
पहिले नावँ दैउ कर लीन्हा । जेइ जिउ दीन्ह, बोल मुख कीन्हा ॥<br>
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* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 2 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
दीन्हेसि सिर जो सँवारै पागा । दीन्हेसि कया जो पहिरै बागा ॥<br>
+
* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 3 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
दीन्हेसि नयन-जोति, उजियारा । दीन्हेसि देखै कहँ संसारा ॥<br>
+
* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 4 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
दीन्हेसि स्रवन बात जेहि सुनै । दीन्हेसि बुद्धि, ज्ञान बहु गुनै ॥<br>
+
* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 5 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
दीन्हेसि नासिक लीजै बासा । दीन्हेसि सुमन सुगंध-बिरासा ॥<br>
+
* [[आखरी कलाम / पृष्ठ 6 / मलिक मोहम्मद जायसी]]
दीन्हेसि जीभ बैन-रस भाखै । दीन्हेसि भुगुति, साध सब राखै ॥<br>
+
दीन्हेसि दसन सुरंग कपोला । दीन्हेसि अधर जे रचै तँबोला ॥<br>
+
 
+
दीन्हेसि बदन सुरूप रँग, दीन्हेसि माथे भाग ।<br>
+
देखि दयाल, `मुहमद' सीस नाइ पद लाग ॥1॥<br><br>
+
 
+
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि भुजादंड, बल बाहाँ ॥<br>
+
दीन्हेसि हिया भोग जेहि जमा । दीन्हेसि पाँच भूत, आतमा ॥<br>
+
दीन्हेसि बदन सीत औ घामू । दीन्हेसि सुक्ख-नींद बिसरामू ॥<br>
+
दीन्हेसि हाथ चाह जस कीजै । दीन्हेसि कर-पल्लव गहि लीजै ॥<br>
+
दीन्हेसि रहस कूद बहुतेरा । दीन्हेसि हरष हिया बहु मेरा ॥<br>
+
दीन्हेसि बैठक आसन मारै । दीन्हेसि बूत जो उठें सँभारै ॥<br>
+
दीन्हेसि सबै सँपूरन काया । दीन्हेसि दोइ चलै कहँ पाया ॥<br>
+
 
+
दीन्हेसि नौ नौ फाटका, दीन्हेसि दसवँ दुवार ।<br>
+
सो अस दानि `मुहमद', तिन्ह कै हौं बलिहार ॥2॥<br><br>
+
 
+
मरम नैन कर अँधरै बूझा । तेहि बिसरे संसार न सूझा ॥<br>
+
मरम स्रवन कर बहिरै जाना । जो न सुनै, किछु दीजै साना ॥<br>
+
मरम जीभ कर गूँगै पावा । साध मरै, पै निकर न नावाँ ॥<br>
+
मरम बाहँ कै लूलै चीन्हा । जेहि बिधि हाथन्ह पाँगुर कीन्हा ॥<br>
+
मरम कया कै कुस्टी भेंटा । नित चिरकुट जो रहै लपेटा ॥<br>
+
मरम बैठ उठ तेहि पै गुना । जो रे मिरिग कस्तूरी पहाँ ॥?<br>
+
मरम पावँ कै तेहि पै दीठा । होइ अपाय भुइँ चलै बईठा ॥<br>
+
 
+
अति सुख दीन्ह बिधातै, औ सब सेवक ताहि ।<br>
+
आपन मरम `मुहमद' अबहूँ समुझ, कि नाहि ॥3॥<br><br>
+
 
+
भा औतार मोर नौ सदी । तीस बरीस ऊपर कबि बदी ॥<br>
+
आवत उधत-चार बिधि ठाना । भा भूकंप जगत अकुलाना ॥<br>
+
धरती दीन्ह चक्र-बिधि लाईं । फिरै अकास रहँट कै नाईं ॥<br>
+
गिरि पहार मेदिनि तस हाला । जस चाला चलनी भरि चाला ॥<br>
+
मिरित-लोक ज्यों रचा हिंडोला । सरग पताल पवन-खट डोला ॥<br>
+
गिरि पहार परबत ढहि गए । सात समुद्र कीच मिलि भए ॥<br>
+
धरती फाटि, छात भहरानी । पुनि भइ मया जौ सिष्टि समानी ॥<br>
+
 
+
जो अस खंभन्ह पाइ कै, सहस जीभ गहिराइँ ।<br>
+
सो अस कीन्ह `मुहमद', तोहि अस बपुरे काइँ ॥4॥<br><br>
+
 
+
सूरुज (अस) सेवक ताकर अहै । आठौ पहर फिरत जो रहै ॥<br>
+
आयसु लिए रात दिन धावै । सरग पताल दुवौ फिरि आवै ॥<br>
+
दगधि आगि महँ होइ अँगारा । तेहि कै आँच धिकै संसारा ॥<br>
+
सो अस बपुरै गहनै लीन्हा । औ धरि बाँधि चँडालै दीन्हा ॥<br>
+
गा अलोप होइ, भा अँधियारा । दीखै दिनहि सरग महँ तारा ॥<br>
+
उवतै झप्पि लीन्ह, घुप चाँपै । लाग सरब जिउ थर थर काँपै ॥<br>
+
जिउ कहँ परे ज्ञान सब झूठै । तब होइ मोख गहन जौ छूटै ॥<br>
+
 
+
ताकहँ एता तरासै जो सेवक अस नित ।<br>
+
अबहुँ न डरसि `मुहमद', काह रहसि निहचिंत ॥5॥<br><br>
+
 
+
ताकै अस्तुति कीन्हि न जाई । कोने जीभ मैं करौं बढाई ?॥<br>
+
जगत पताल जो सैते कोइ । लेखनी बिरिख, समुद मसि होई॥<br>
+
लागै लिखै सिष्टि मिलि जाई । समुद घटै, पै लिखि न सिराई ॥<br>
+
साँचा सोइ और सब झूठे । ठावँ न कतहुँ ओहि कै रूठे ॥<br>
+
आयसु इबलीस हु जौ टारा । नारद होइ नरक महँ पारा ॥<br>
+
सौ दुइ कटक, कहउ लखि घोरा । फरऊँ रोधि नील महँ बोरा ॥<br>
+
जौ शदाद बैकुंठ सँवारा । पैठत पौरि बीच गहि मारा ॥<br>
+
 
+
जो ठाकुर अस दारुन, सेवक तइँ निरदोख ।<br>
+
माया करै `मुहम्मद', तौ पै होइहि मोख ॥6॥<br><br>
+
 
+
रतन एक बिधनै अवतारा । नावँ `मुम्मद' जग-उजियारा ॥<br>
+
चारि मीत चहुँदिसि गजमोती । माँझ दिपै मनु मानिक-जोती ॥<br>
+
जेहि हित सिरजा सात समुंदा । सातहु दीप भए एक बुंदा ॥<br>
+
तर पर चौदह भुवन उसारे । बिच बिच खंड-बिखंड सँवारे ॥<br>
+
धरती औ गिरि मेरु पहारा । सरग चाँद सूरज औ तारा ॥<br>
+
सहस अठारह दुनिया सिरैं । आवत जात जातरा करैं ॥<br>
+
जेइ नहिं लीन्ह जनम महँ नाऊँ । तेहहि कहँ कीन्ह नरक महँ ठाऊँ ॥<br>
+
 
+
सो अस देऊ न राखा, जेहि कारन सब कीन्ह ।<br>
+
दहुँ तुम काह `मुहम्मद' एहि पृथिवी चित दीन्ह ॥7॥<br><br>
+
 
+
बाबर साह छत्रपति राजा । राज-पाट उन कहँ बिधि साजा ॥<br>
+
भुलुक सुलेमाँ कर ओहि दीन्हा । अदल दुनी ऊमर जस कीन्हा ॥<br>
+
अली केर जस कीन्हेसि खाँडा । लीन्हेसि जगत समुद भरि डाँडा ॥<br>
+
बल हजमा कर जैस सँभारा । जो बरियार उठा तेहि मारा ॥<br>
+
पहलवान नाए सब आदी । रहा न कतहुँ बाद करि बादी ॥<br>
+
बड परताप आप तप साधे । धरम के पंथ दई चित बाँधे ॥<br>
+
दरब जोरि सब काहुहि दिए । आपुन बिरह आउ-जस लिए ॥<br>
+
 
+
राजा होइ करै, सब छाँडि, जगत महँ राज ।<br>
+
तब अस कहैं `मुहम्मद', वै कीन्हा किछु काज ॥8॥<br><br>
+
 
+
मानिक एक पाएउँ उजियारा । सैयद असरफ पीर पियारा ॥<br>
+
जहाँगीर चिस्ती निरमरा । कुल जग महँ दीपक बिधि धरा ॥<br>
+
औ निहंग दरिया-जल माहाँ । बूडत कहँ धरि काढत बाहाँ ॥<br>
+
समुद माहँ जो बाहति फिरई । लेतै नावँ सौहँ होइ तरई ॥<br>
+
तिन्ह घर हौ मुरीद, सो पीरू । सँवरत बिनु गुन लावै तीरू ॥<br>
+
कर गहि धरम-पंथ देखरावा । गा भुलाइ तेहि मारग लावा ॥<br>
+
जो अस पुरुषहि मन चित लावै । इच्छा पूजै, आस तुलावै ॥<br>
+
 
+
जौ चालिस दिन सेवै, बार बुहारै कोइ ।<br>
+
दरसन होइ `मुहम्मद', पाप जाइ सब धोइ ॥9॥ <br><br>
+
 
+
जायस नगर मोर अस्थानू । नगर क नावँ आदि उदयानू ॥<br>
+
तहाँ दिवस दस पहुने आएउँ । भा बैराग बहुत सुख पाएउँ ॥<br>
+
सुख भा, सोचि एक दिन मानौं । ओहि बिनु जिवन मरन कै जानौं ॥<br>
+
नैन रूप सो गएउ समाई । रहा पूरि भर हिरदय कोई ॥<br>
+
जहवैं देखौं तहँवै सोई । और न आव दिस्टि तर कोई ॥<br>
+
आपुन देखि देखि मन राखौं । दूसर नाहिं, सो कासौं भाखौं ॥<br>
+
सबै जगत दरपन कै बेखा । आपन दरसन आपुहि देखा ॥<br>
+
 
+
अपने कौकुत कारन मीर पसारिन हाट । <br>
+
मलिक मुहम्मद बिहनै होइ निकसिन तेहि बाट ॥10॥<br><br>
+
 
+
धूत एक मारत गनि गुना । कपट-रूप नारद करि चुना ॥<br>
+
`नावँ न साधु', साधि कहवावै तेहि लगि चलै जौ गारी पावै ॥<br>
+
भाव गाँठि अस मुख, कर भाँजा । कारिख तेल घालि मुख माँजा ॥<br>
+
परतहि दीठि छरत मोहिं लेखे । दिनहिं माँझ अँधियर मुख देखे ॥<br>
+
लीन्हे चंग राति दिन रहई । परपँच कीन्ह लोगन महँ चहई ॥<br>
+
भाइ बंधु महँ लाई लावै । बाप पूत महँ कहै कहावै ॥<br>
+
मेहरी भेस रैनि के आवै । तरपड कै पूरुख ओनवावै ॥<br>
+
 
+
मन-मैली कै ठगि ठगै, ठगै न पायौ काहु ।<br>
+
वरजेउ सबहिं `मुहम्मद', असि जिन तुम पतियाहु ॥11॥<br><br>
+
 
+
अंग चढावहु सूरी भारा । जाइ गहौ तब चंग अधारा ॥<br>
+
जौ काहू सौं आनि चिहूँटै । सुनहु मोर बिधि कैसे छूटै ॥<br>
+
उहै नावँ करता कर लेऊ । पढौ पलीता धूआँ देऊ ॥<br>
+
जौ यह धुवाँ नासिकहि लागै । मिनती करै औ उठि उठि भागै ॥<br>
+
धरि बाईं लट सीस झकोरै । करि पाँ तर, गहि हाथ मरोरै ॥<br>
+
तबहि सँकोच अधिक ओहि हौवै । `छाँडहु, छाँडहु!' कहि कै रोवैं ॥<br>
+
धरि बाहीं लै थुवा उडावै । तासौं डरै जो ऐस छोडावै ॥<br>
+
 
+
है नरकी औ पापी, टेढ बदन औ आँखि ॥<br>
+
चीन्हत उहै `मुहम्मद', झूठ-भरी सब साखि ॥12॥<br><br>
+
 
+
नौ सै बरस छतीस जो भए । तब एहि कथा क आखर कहे ॥<br>
+
देखौं जगत धुध कलि माहाँ । उवत धूप धरि आवत छाहाँ ॥<br>
+
यह संसार सपन कर लेखा । माँगत बदन नैन भरि देखा ॥<br>
+
लाभ, दिउ बिनु भोग, न पाउब । परिहि डाड जहँ मूर गँवाउब ॥<br>
+
राति क सपन जागि पछिताना । ना जानौ कब होइ बिहाना ॥<br>
+
अस मन जानि बेसाहहु सोई । मूर न घटै, लाभ जेहि होई ॥<br>
+
ना जानेहु बाढत दिन जाई । तिल तिल घहै आउ नियराई ॥ <br>
+
 
+
अस जिन जानेहु बढत है, दिन आवत नियरात ।<br>
+
कहै सो बूझि `मुहम्मद' फिर न कहौं असि बात ॥13॥<br><br>
+
 
+
जबहिं अंत कर परलै आई । धरमी लोग रहै ना पाई ॥<br>
+
जबहीं सिद्ध साधु गए पारा । तबहीं चलै चोर बटपारा ॥<br>
+
जाइहि मया-मोह सब केरा । मच्छ-रूप कै आइहि बेरा ॥<br>
+
उठिहैं पंडित बेद-पुराना । दत्त सत्त दोउ करिहिं पयाना ॥<br>
+
धूम-बरन सूरुज होइ जाई । कृस्न बरन सब सिष्टि दिखाई <br>
+
दधा पुरुब दिसि उइहै जहाँ । पुनि फिरि आइ अथइहै तहाँ ॥<br>
+
चढि गदहा निकसै धरि जालू । हाथ खंड होइ, आवै कालू ॥<br>
+
 
+
जो रे मिलै तेहि मारै, फिरि फिरि आइ कै गाज ।<br>
+
सबही मारि `मुहम्मद', भूज अरहिता राज ॥14॥<br><br>
+
 
+
पुनि धरती कहँ आयसु होई । उगिलै दरब, लेइ सब कोई ॥ <br>
+
`मोर मोर', करि उठिहैं झारी । आपु आपु महँ करिहैं मारी ॥<br>
+
अस न कोई जानै मन माहाँ । जो यह सँचा अहै सो कहाँ ॥<br>
+
सैंति सैंति लेइ लेइ घर भरहीं । रहस-कूद अपने जिउ करहीं ॥<br>
+
खनहिं उतंग, खनहि फिर साँती । नितहि हुलंब उठै बहु बाँती ॥<br>
+
पुनि एक अचरज सँचरै आई । नावँ `मजारी' भँवै बिलाई ॥<br>
+
ओहि के सूँघे जियै न कोई । जो न मरै तेहि भक्खै सोई ॥<br>
+
 
+
सब संसार फिराइँ औ लावै गहिरी घात ।<br>
+
उनहूँ कहै `मुहम्मद' बार न लागिहि जात ॥15॥<br><br>
+
 
+
पुनि मैकाइल आयसु पाए । उन बहु भाँति मेघ बरसाए ॥<br>
+
पहिले लागै परै अँगारा । धरती सरग होइ उजियारा ॥<br>
+
लागी सबै पिरथिवीं जरै । पाछे लागे पाथर परै ॥<br>
+
सौ सौ मन कै एक एक सिला । चलै पिंड घुटि आवैं मिला ॥<br>
+
बजर-गोट तस छूटैं भारी । टूटैं रूख बिरुख-सब झारी ॥<br>
+
परत धमाकि धरति सब हालै । उधिरत उठै सरग लौं सालै ॥<br>
+
अधाधार बरसै बहु भाँती । लागि रहै चालिस दिन-राती ॥<br>
+
 
+
जिया-जंतु सब मरि घटे जित सिरजा संसार ।<br>
+
कोइ न है `मुहम्मद', होइ बीता संघार ॥16॥<br><br>
+
 
+
जिबरईल पाउब फरमानू । आइ सिस्टि देखब मैदानू ॥<br>
+
जियत न रहा जगत केउ ठाढा । मारा झोरि कचरि सब गाढा ॥<br>
+
मरि गंधाहिं, साँस नहिं आवै । उठै बिगंध, सडाइँध आवैं ॥<br>
+
जाइ देऊ से करहु बिनाती । कहब जाइ जस देखब भाँती ॥<br>
+
देखहु जाइ सिस्टि बेवहारू । जगत उजाड सून संसारू ॥<br>
+
अस्ट दिसा उजारि सब मारा । कोइ न रहा नावँ-लेनिहारा ॥<br>
+
मारि माछ जस पिरथिवीं पाटी । परै पिछानि न, दीखे माटी ॥<br>
+
 
+
सून पिरथिवीं होइगई, दहुँ धरती सब लीप ।<br>
+
जेतनी सिस्टि `मुहम्मद' सबै भाइ जल-दीपि ॥17॥<br><br>
+
 
+
 
+
मकाईल पुनि कहब बुलाई । बरसहु मेघ पिरथिवीं जाई ॥<br>
+
उनै मेघ भरि उठिहैं पानी । गरजि गरजि बरसहिं अतवानी ॥<br>
+
झरी लागि चालिस दिन राती । घरी न निबुसै एकहु भाँती ॥<br>
+
छूटि पानि परलय की नाईं । चढा छापि सगरिउँ दुनियाईं ॥<br>
+
बूडहिं परबत मेरु पहारा । जल हुलि उमडि चलै असरारा ॥<br>
+
जहँ लगि मगर माछ जित होई । लेइ बहाइ जाइहि भुइँ धोई ॥<br>
+
 
+
सून पिरथिवीं होइहि, बूझे हँसै ठठाइ ।<br>
+
एतनि जो सिस्टि `मुहम्मद', सो कहँ गई हेराइ ॥18॥<br><br>
+
 
+
पुनि इसराफीलहि फरमाए । फूँके, सब संसार उडाए ॥<br>
+
दै मुख सूर भरै जो साँसा । डोलै धरती, लपत अकासा ॥<br>
+
भुवन चौदहो गिरि मनु डोला । जानौ घालि झुलाव हिंडोला ॥<br>
+
पहिले एक फूँक जो आई । ऊँच-नीच एक -सम होइ जाई ॥<br>
+
नदी नार सब जैहै पाटी । अस होइ मिले ज्यों ठाढी माटी ॥<br>
+
दूसरि फूँक जो मेरू उडहै । परबत समुद्र एक होइ जैहैं ॥<br>
+
चाँद सुरुज तारा घट टूटै । परतहि खंभ सेस घट फूटै ॥<br>
+
 
+
तिसरे बजर महाउब, अस धुइँ लेब महाइ ।<br>
+
पूरब पछिउँ `मुहम्मद'एक रूप होइ जाइ ॥19॥<br><br>
+
 
+
अजराइल कहँ बेगि बोलावै । जीउ जहाँ लगि सबै लियावै ॥<br>
+
पहिले जिउ जिबरैल क लेई । लोटि जीउ मैकाइल देई ॥<br>
+
पुनि जिउ देइहि इसराफीलू । तीनिहु कहँ मारै अजराईलू ॥<br>
+
काल फिरिस्तिन केर जौ होई । कोइ न जागौ, निसि असि होई ॥<br>
+
पुनि पूछब "जम! सब जिउ लीन्हा ?। एकौ रहा बाँचि जो दीन्हा ?॥" <br>
+
सुनि अजराइल आगे होइ आउब । उत्तर देब, सीस भुइँ नाउब ॥<br>
+
आयसु होइ करौं अब सोई । की हम, की तुम , और न कोई ॥<br>
+
 
+
जो जम आन जिउ लेत हैं, संकर तिनहू कर जिउ लेब ।<br>
+
सो अवतरें मुहम्मद' देखु तहुँ जिउ देब ॥20॥<br><br>
+
 
+
पुनि फरमाए आपु गोसाईं । तुमहि दैउ जिवाइहि नाहीं ॥<br>
+
सुनि आयसु पाछे कहँ ढाए । तिसरी पौरि नाँघि नहिं पाए ॥<br>
+
परत जीउ जब निसरन लागै । होइ बड कष्ट, घरी एक जागै ॥<br>
+
प्रान देत सँवरै मन माहाँ । उवत धूप धरि आवत छाहाँ ॥<br>
+
जस जिउ देत मोहिं दुख होई । ऐसै दुखै अहा सब कोई ॥<br>
+
जौ जनत्यों अस दुख जिउ देता । तौ जिउ काहू केर न लेता ॥<br>
+
लौटि काल तिनहूँ कर होवै । आइ नींद, निधरक होइ सोवै ॥<br>
+
 
+
भंजन, गढन सँवारन जिन खेला सब खेल ।<br>
+
सब कहँ टारि `मुहम्मद',अब होइ रहा अकेल ॥21॥<br><br>
+
 
+
चालिस बरस जबहिं होइ जैहै । उठिहि मया, पछिले सब ऐहैं ॥<br>
+
मया-मोह कै किरपा आए । आपहि काहिं आप फरमाए ॥<br>
+
मैं संसार जो सिरजा एता । मोर नावँ कोई नहिं लेता ॥<br>
+
जेतने परे सब सबहि उठावौं । पुलसरात कर पंथ रेंगावौं ॥<br>
+
पाछे जिए पूछौं अब लेखा । नैन माँह जेता हौं देखा ॥<br>
+
जस जाकर सरवन मैं सुना । धरम पाप, गुन औगुन गुना ॥<br>
+
कै निरमल कौसर अन्हवावौं । पुनि जीउन्ह बैकुंठ पठावौं ॥<br>
+
 
+
मरन गँजन घन होइ जस, जस दुख देखत लोग ।<br>
+
तस सुख होइ `मुहम्मद', दिन दिन मानैं भोग ॥22॥<br><br>
+
 
+
पहिले सेवक चारि जियाउब । तिन्ह सब काजै-काज पठाउब ॥<br>
+
जिबराइल औ मैकाईल । असराफील औ अजराईलू ॥<br>
+
जिबरईल पिरथिवीं महँ आए । आइ मुहम्मद कहँ गोहराए ॥<br>
+
जिबरईल जग आइ पुकारब । नावँ मुहम्मद लेत हँकारब ॥<br>
+
होइहैं जहाँ मुहम्मद नाऊँ । कहउ लाख बोलिहैं एक ठाऊँ ॥<br>
+
ढूढत रहै, कहहुँ नहिं पावै । फिरि कै जाइ मारि गोहरावै ॥<br>
+
कहै "गोसाइँ ! कहाँ वै पावौं । लखन बोलै जौ रे बोलावौं ॥<br>
+
 
+
सब धरती फिरि आएउँ, जहाँ नावँ सो लेउँ ।<br>
+
लाखन उठैं मुहम्मद, केहि कहँ उत्तर देउँ ॥23॥<br><br>
+
 
+
जिबराइल पुनि आयसु पावै । "सूँघे जगत ठाँव सो पावै ॥<br>
+
बास सुबास लेउ हैं जहाँ । नाव रसूल पुकारसि तहाँ ॥"<br>
+
जिबराइल फिरि पिरथिवीं आए । सूँघत जगत ठाँव सो पाए ॥<br>
+
उठहु मुहम्मद, होहु बड नेगी । देन जोहार बोलावहिं बेगी ॥<br>
+
बेगि हँकारेउ उमत समेता । आवहु तुरत साथ सब लेता ॥<br>
+
एतने बचन ज्योंहि मुख काढे । सुनत रसूल भए उठि ठाढे ॥<br>
+
जहँ लगि जीउ मुकहि सब पाए । अपने अपने पिंजरे आए ॥<br>
+
 
+
कइउ जुगन के सोवत उठे लोग मनो जागि ।<br>
+
अस सब कहैं `मुहम्मद' नैन पलक ना लागि ॥24॥<br><br>
+
 
+
उठत उमत कहँ आलस लागै । नींद-भरी सोवत नहिं जागै ॥<br>
+
पौढत बार न हम कहँ भएऊ । अबहिंन अवधि आइ कब गएऊ ॥<br>
+
जिबराइल तब कहब पुकारी । अबहूँ नींद न गई तुम्हारी ॥<br>
+
सोवत तुमहिं कइउ जुग बीते । ऐसे तौ तुम मोहे, न चीते ॥<br>
+
कइउ करोरि बरस भुइँ परे । उठहु न बेगि मुहम्मद खरे ॥<br>
+
सुनि कै जगत उठिहि सब झारी । जेतना सिरजा पुरुष औ नारी ॥<br>
+
नँगा-नाँग उठिहै संसारू । नैना होइहैं सब के तारू ॥<br>
+
 
+
कोइ न केहु तन हेरै, दिस्टि सरग सब केरि ।<br>
+
ऐसे जतन `मुहम्मद', सिस्टि चलै सब घेरि ॥25॥<br><br>
+
 
+
पुनि रसूल जैहैं होइ आगे । उम्मत चलि सब पाछे लागै ॥<br>
+
अंध गियान होइ सब केरा । ऊँच नीच जहँ होइ अभेरा ॥<br>
+
सबही जियत चहैं संसारा । नैनन नीर चलै असरारा ॥<br>
+
सो दिन सँवरि उमत सब रोवै । ना जानौं आगे कस होवै ॥<br>
+
जो न रहै, तेहि का यह संगा ? मुख सूखै तेहि पर यह दंगा ॥<br>
+
जेहि दिन कहँ नित करत डरावा । सोइ दिवस अब आगे आवा ॥<br>
+
जौ पै हमसे लेखा लेबा । का हम कहब, उतर का देबा ॥<br>
+
 
+
एत सब सँवरि कै मन महँ चहैं जाइ सो भूलि ।<br>
+
पैगहि पैग 'मुहम्मद' चित्त रहै सब झुलि ॥26॥<br><br>
+
 
+
पुल सरात पुनि होइ अभेरा । लेखा लेब उमत सब केरा ॥<br>
+
एक दिसि बैठि मुहम्मद रोइहैं । जिबरईल दूसर दिसि होइहैं ॥<br>
+
वार पार किछु सूझत नाहीं । दूसर नाहिं, को टैकै बाहीं ?॥<br>
+
तीस सहस्त्र कोस कै बाटा । अस साँकर जेहि चलै न चाँटा ॥<br>
+
बारहु तें पतरा अस झीना । खडग-धार से अधिकौ पैना ॥<br>
+
दोउ दिसि नरक-कुंड हैं भरे । खोज न पाउब तिन्ह महँ परे ॥<br>
+
देखत काँपै लागै जाँघा । सो पथ कैसे जैहै नाँघा ॥<br>
+
 
+
तहाँ चलत सब परखब, को रे पूर, को ऊन ।<br>
+
अबहिं को जान `मुहम्मद', भरे पाप औ पून ॥27॥<br><br>
+
 
+
जो धरमी होइहि संसारा । चमकि बीजु अस जाइहि पारा ॥<br>
+
बहुतक जनौं तुरँग भल धइहैं । बहुतक जानु पखेरु उडइहैं ॥<br>
+
बहुतक चाल चलै महँ जइहैं । बहुतक मरि मरि पावँ उठइहैं ॥<br>
+
बहुतक जानु पखेरु उडइहैं । पवन कै नाईं तेहि महँ जइहैं ॥<br>
+
बहुतक जानौं रेंगहिं चाँटी । बहुतक बहैं दाँत धरि माटी ॥<br>
+
बहुतक नरक-कुंड महँ गिरहीं । बहुतक रकत पीब महँ परहीं ॥<br>
+
जेहि के जाँघ भरोस न होई । सो पंथी निभरोसी रोई ॥<br>
+
 
+
परै तरास सो नाँघत, कोइ रे वार, कोइ पार ।<br>
+
कोइ तिर रहा`मुहम्मद', कोइ बूडा मझ-धार ॥28॥ <br><br>
+
 
+
लौटि हँकारब वह तब भानू । तपै कहैं होइहि फरमानू ॥<br>
+
पूछब कटक जेता है आवा । को सेवक, को बैठे खावा ?॥<br>
+
जेहि जस आउ जियन मैं दीन्हा । तेहि तस चाहौं लीन्हा ॥<br>
+
अब लगि राज देस कर भूजा । अब दिन आइ लेखा कर पूजा ॥<br>
+
छः मास कर दिन करौं आजू । आउ क लेउँ औ देखौं साजू ॥<br>
+
से चौराहै बैठे आव । एक एक जन कँ पूछि पकरावै ॥<br>
+
नीर खीर हुँत काढब छानी । करब निनार दूध और पानी ॥<br>
+
 
+
धरम पाप फरियाउब, गुन औगुन सब दोख ।<br>
+
दुखी न होहु `मुहम्मद', जोखि लेब धरि जोख ॥29॥<br><br>
+
 
+
पुनि कस होइहि दिवस छ मासू । सूरुज आइ तपहिं होइ पासू ॥<br>
+
कै सउँहैं नियरे रथ हाँकै । तेहिकै आँच गूद सिर पाकै ॥<br>
+
बजरागिनि अस लागै तैसे । बिलखैं लोग पियासन बैसे ॥<br>
+
उनै अगिन अस बरसै घामू । भूँज देह, जरि जावै चामू ॥<br>
+
जेइ किछु धरम कीन्ह जग माँहा । तेहि सिर पर किछु आवै छाहाँ ॥<br>
+
धरिमिहि आनि पियाउब पानी । पापी बपुरहि छाहँ न पानी ॥<br>
+
जो राजता सो काज न आवै । इहाँ क दीन्ह उहाँ सो पावै ॥<br>
+
 
+
जो लखपती कहावै, लहैन कोडी आधि ।<br>
+
चौदह धजा `मुहम्मद', ठाढ करहिं सब बाँधि ॥30॥<br><br>
+
 
+
सवा लाख पैगंबर जेते । अपने अपने पाएँ तेते ॥<br>
+
एक रसूल न बैठहिं छाहाँ । सबही धूप लेहिं सिर माहाँ ॥<br>
+
घामै दुखी उमत जेहि केरी । सो का मानै सुख अवसेरी ?॥<br>
+
दुखी उमत तौ पुनि मैं दुखी । तेहि सुख होइतौ पुनि मैं सुखी ॥<br>
+
पुनि करता कै आयसु होई । उमत हँकारु लेखा मोहिं देई ॥<br>
+
कहब रसूल कि आयसु पावौं । पहिले सब धरमी लै आवौं ॥<br>
+
होइ उतर `तिन्ह हौं ना चाहौं । पापी घालि नरक महँ बाहौं ॥<br>
+
 
+
पाप पुन्नि कै तखरी होइ चाहत है पोच ।<br>
+
अस मन जानि मुहम्मद हिरदै मानेउ सोच ॥31॥<br><br>
+
 
+
पुनि जैहैं आदम के पासा । `पिता! तुम्हारि बहुत मोहिं आसा ॥<br>
+
`उमत मोरि गाढे है परी । भा न दान, लेखा का धरी ? ॥<br>
+
`दुखिया पूत होत जो अहै । सब दुख पै बापै सौं कहै ॥<br>
+
बाप बाप कै जो कछु खाँगै । तुमहिं छाँडि कासौं पुनि माँगै ?॥<br>
+
`तुम जठेर पुनि सबहिन्ह केरा । अहै सतति ,मुख तुम्हरै हेरा ॥<br>
+
`जेठ जठेर जो करिहैं मिनती । ठाकुर तबहीं सुनिहैं मिनती ॥<br>
+
`जाइ देउ सों बिनवौ रोई । मुख दयाल दाहिन तोहि होई ॥<br>
+
 
+
`कहहु जाइ जस देखेउ, जेहि होवै उदघाट ।<br>
+
`बहु दुख दुखी मुहम्मद, बिधि ! संकट तेहि काट' ॥32॥<br><br>
+
 
+
`सुनहु पूत! आपन दुख कहऊँ । हौं अपने दुख बाउर रहऊँ ॥<br>
+
`होइ बैकुंठ जो आयसु ठेलेउँ । दूत के कहे मुख गोहूँ मेलेउ ॥<br>
+
`दुखिया पेट लागि सँग धावा । काढि बिहिस्त से मैल ओढावा ॥<br>
+
`परल जाइ मंडल संसारा । नैन न सूझे, निसि -अधियारा ॥<br>
+
`सकल जगत मैं फिरि फिरि रोवा । जीउ अजान बाँधि कै खोवा ॥<br>
+
`भएँ उजियार पिरथिवीं जइहौं । औ गोसाइँ कै अस्तुति कहिहौं ॥<br>
+
`लौटि मिलै जौ हौवा आई । तौ जिउ कहँ धीरझ होइ जाई ॥<br>
+
 
+
`तेहि हुँत लाजि उठै जिउ, मुहँ न सकौं दरसाइ ।<br>
+
`सो मुह लेइ, मुहम्मद ! बात कहौं का जाइ ?॥33॥<br><br>
+
 
+
पुनि जैहैं मूसा क दोहाई । ऐ बंधू ! मोहिं उपकरू आई ॥<br>
+
`तुम कहँ बिधिना आयसु दीन्हा । तुम नेरे होइ बातैं कीन्हा ॥<br>
+
`उम्मत मोरि बहुत दुख देखा । भा न दान, माँगत है लेखा ॥<br>
+
`अब जौ भाइ मोर तुम अहौ । एक बात मोहिं कारन कहौ ॥<br>
+
`तुम अस ठटै बात का कोई । सोई कहौं बात जेहि होई ॥<br>
+
`गाढे मीत ! कहौं का काहू ? । कहहु जाइ जेहि होइ निबाहू ॥<br>
+
`तुम सँवारि कै जानहु बाता । मकु सुनि माया करै बिधाता ॥<br>
+
 
+
मिनती करहु मोर हुँत सीस नाइ, कर जोरि,।<br>
+
हा हा करै मुहम्मद `उमत दुखी है मोरि ॥34॥<br><br>
+
 
+
सुनहु रसूल बात का कहौं । हौं अपने दुख बाउर रहौं ॥<br>
+
कै कै देखेउँ बहुत ढिठाई । मुँह गरुवाना खात मिठाई ॥<br>
+
पहिले मो कहँ आयसु दीन्हा । फरऊँ से मैं झगरा कीन्हा ॥<br>
+
`रोधि नील क डारेसि झुरा । फुर भा झूठ, झूठ भा फुरा ॥<br>
+
`पुनि देखै बैकुंठ पठाएउ । एकौ दिसि कर पंथ न पाएउँ ॥<br>
+
पुनि जो मो कहँ दरसन भएऊ । कोह तूर रावट होइ गएऊ ॥<br>
+
`भाँति अनेक मैं फिर फिर जापा । हर दावँन कै लीन्हेसि झाँपा ॥<br>
+
 
+
निरखि नैन मैं देखौं, कतहुँ परै नहिं सूझि ।<br>
+
`रहौ लजाइ, मुहम्मद! बात कहौं का बूझि'? ॥35॥<br><br>
+
 
+
दौरि दौरि सबही पहँ जैहैं । उतर देइ सब फिरि बहरैहैं ॥<br>
+
ईसा कहिन कि कस ना कहत्यों । जौ किछु कहे क उत्तर पवत्यों ॥<br>
+
मैं मुए मानुस बहुत जियावा । औ बहुतै जिउ-दान दियावा ॥<br>
+
इब्राहिम कह, कस ना कहत्यों । बात कहे बिन मैं ना रहत्यों ॥<br>
+
मोसौं खेलु बंधु जो खेला । सर रचि बाँधि अगिन महँ मेला ॥<br>
+
तहाँ अगिन हुँत भइ फुलवारी । अपडर डरौं, न परहिं सँभारी ॥<br>
+
नूह कहिन, जप परलै आवा । सब जग बूड, रहेउँ चढि नावा ॥<br>
+
 
+
काह कहै काहू से, सबै ओढाउब भार ॥<br>
+
जस कै बैन मुहम्मद, करू आपन निस्तार ॥36॥<br><br>
+
 
+
सबै भार अस ठेलि ओढाउब । फिर फिर कहब, उतर ना पाउब ॥<br>
+
पुनि रसूल जैहै दरबारा । पैग मारि भुइँ करब पुकारा ॥<br>
+
तै सब जानसि एक गोसाईं । कोइ न आव उमत के ताई ॥<br>
+
जेहि सौ कहौं सो चुप होइ रहै । उमत लाइ केहु बात न कहै ॥<br>
+
मोहिं अस तहीं लाग करतारा । तोहिं होइ भल सोइ निस्तारा ॥<br>
+
जो दुख चहसि उमत कहँ दीन्हा । सो सब मैं अपने सिर लीन्हा ॥<br>
+
 
+
लेखि जोखि जो आवै मरन गँजन दुख दाहु ।<br>
+
सो सब सहै मुहम्मद, दुखी कर जनि काहु ॥37॥<br><br>
+
 
+
पुन रिसाइ कै कहै गोसाईं । फातिम कहँ ढूँढहु दुनियाईं ॥<br>
+
का मोसौं उन झगर पसारा । हसन हुसैन कहौ को मारा ॥<br>
+
ढूँढे जगत कतहुँ ना पैहैं । फिरि कै जाइ मारि गोहरैहैं ॥<br>
+
ढूँढि जगत दिनिया सब आएउँ । फातिम-खोज कतहुँ ना पाएउँ ॥<br>
+
`आयसु होइ, अहैं पुनि कहाँ' । उठा नाद हैं धरती महाँ ॥<br>
+
`मूँदै नैन सकल संसारा । बीबी उठैं, करै निस्तारा ॥<br>
+
जो कोई देखै नैन उघारी । तेहि कहँ छार करौं धरि जारी' ॥<br>
+
 
+
आयसु होइहि देउ कर , नैन रहै सब झाँपि ॥<br>
+
एक ओर डरैं मुहम्मद, उमत मरै डरि काँपि ॥38 ॥<br><br>
+
 
+
उट्ठिन वीवी तब रिस किहें । हसन-हुसेन दुवौ सँग लीहें ॥<br>
+
`तैं करता हरता सब जानसि । झूँठै फुरै नीक पहिचानसि ॥<br>
+
`हसन हुसेन दुवौ मोर वारे । दुनहु यजीद कौन गुन मारे ? ॥<br>
+
`पहिले मोर नियाव निबारू । तेहि पाछे जेतना संसारू ॥<br>
+
`समुझें जीउ आगि महँ दहऊँ । देहु दादि तौ चुप कै रहऊँ ॥<br>
+
`नाहि त देउँ सराप रिसाई । मारौं आहि अर्श जरि जाई ॥<br>
+
 
+
`बहु संताप उठै निज, कैसहु समुझि न जाइ ।<br>
+
`बरजहु मोह मुहम्मद, अधिक उठै दुख-दाइ' ॥39॥<br><br>
+
 
+
पुनि रसूल कहँ आयसु होई । फातिम कहँ समुझावहु सोई ॥<br>
+
`मारै आहि अर्श जरि जाई । तेहि पाछे आपुहि पछिताई ॥<br>
+
` जो नहिं बात क करै बिषादू । जानौ मोहिं दीन्ह परसादू ॥<br>
+
`जो बीबी छाँडहिं यह दोखू । तौ मैं करौं उमत कै मोखू ॥<br>
+
नाहिं न घालि नरक महँ जारौं । लौटि जियाइ मुए पर मारौं ॥<br>
+
`अग्नि-खंभ देखहु जस आगे । हिरकत छार होइ तेहि लागे ॥<br>
+
`चहुँ दिसि फेरि सरग लै लावौं । मँगरन्ह मारौं, लोह चटावौं ॥<br>
+
 
+
तेहि पाछे धरि मारौं घालि नरक के काँठ ।<br>
+
बीबी कहँ समुझावहु, जौ रे उमत कै चाँट ॥40॥<br><br>
+
 
+
पुनि रसूल तलफत तहँ जैहैं । बीबिहि बार बार समुझैहैं ॥<br>
+
बीबी कहब, `घाम कत सहहू ? कस ना बैठि छाहँ महँ रहहू ? ॥<br>
+
`सब पैगंबर बैठे छाहाँ । तुम कस तपौ बजर अस माहाँ ? ॥<br>
+
कहब रसूल छाँह का बैठौं ? उमत लागि धूपहु नहिं बैठौं ॥<br>
+
`तिन्ह सब बाँधि घाम महँ मेले । का भा मोरे छाहँ अकेले ॥<br>
+
`तुम्हरे कोह सबहि जो मरै । समुझहु जीउ, तबहि निस्तरै ॥<br>
+
जो मोहिं चहौ निवारहु कोहू । तब बिधि करै उमत पर छोहू'॥<br>
+
 
+
बहु दुख देखि पिता कर, बीबी समुझा जीउ ।<br>
+
जाइ मुहम्मद बिनवा , ठाढ पाग कै गीउ ॥41॥<br><br>
+
 
+
तब रसूल के कहें भइ माया । जिन चिंता मानहु, भइ दाया ॥<br>
+
जौ बीबी अबहूँ रिसियाई । सबहि उमत-सिर आइ बिसाई ॥<br>
+
अब फातिम कहँ बेगि बोलावहु । देइ दाद तौ उमत छोडावहु ॥ <br>
+
फातिम आइ कै पार लगावा । धरि यजीद दोजख महँ गवा ॥<br>
+
अंत कहा, धरि जान से मारै । जिउ देइ देइ पुनि लौटि पछारै ॥<br>
+
तस मारब जेहि भुइँ गडि जाई । खन खन मारै लौटि जियाई ॥<br>
+
बजर-अगिनि जारब कै छारा । लौटि दहै जस दहै लोहारा ॥<br>
+
 
+
मारि मारि घिसियावैं, धरि दोजख महँ देब ।<br>
+
जेतनी सिस्टि मुहम्मद सबहि पुकारै लेब ॥42॥<br><br>
+
 
+
पुनि सब उम्मत लेब बुलाई । हरू गरू लागब बहिराई ॥<br>
+
निरखि रहौती काढब छानी । करब निनार दूध औ पानी ॥<br>
+
बाप क पूत, न पूत क बापू । पाइहि तहाँ न पुन्नि न पापू ॥<br>
+
आपहि आप आइकै परी । कोउ न कोउ क धरहरि करी ॥<br>
+
कागज काढि लेब सब लखा । दुख सुख जो पिरथिवी महँ देखा ॥<br>
+
पुन्नि पियाला लेखा माँगब । उतर देत उन पानी खाँगब ॥<br>
+
नैन क देखा स्रवन क सुना । कहब, करब, औगुन औ गुना ॥<br>
+
 
+
हाथ, पाँव, मुख, काया, स्रवन, सीस औ आँखि ।<br>
+
पाप न चपै `मुहम्मद' आइ भरैं सब साखि ॥43॥<br><br>
+
 
+
देह क रोवाँ बैरी होइहैं । बजर-बिया एहि जीउ के बोइहैं ॥<br>
+
पाप पुन्नि निरमल कै धोउब । राखब पुन्नि, पाप सब खोउब ॥<br>
+
पुनि कौसर पठउब अन्हवावै । जहाँ कया निरमल सब पावै ॥<br>
+
बुडकी देब देह-सुख लागी । पलुहब उठि, सोवत अस जागी ॥<br>
+
खोरि नहाइ धोइ सब दुंदू । होइ निकरहिं पूनिउ कै चंदू ॥<br>
+
सब क सरीर सुबास बसाई । चंदन कै अस घानी आई ॥<br>
+
झूठे सबहि, आप पुनि साँचे । सबहि नबी के पाछे बाँचे ॥<br>
+
 
+
नबिहि छाडि होइहि सबहि बारह बरस क राह । <br>
+
सब अस जान `मुहम्मद' होइ बरस कै राह ॥44॥<br><br>
+
 
+
पुनि रसूल नेवतब जेवनारा । बहुत भाँति होइहि परकारा ॥ <br>
+
ना अस देखा, ना अस सुना । जौ सरहौं तौ है दस गुना ॥<br>
+
पुनि अनेक बिस्तर तहँ डासब । बास सुबास कपूर से बासब ॥<br>
+
होइ आयसु जौ बेगि बोलाउब । औ सब उमत साथ लेइ आउब ॥<br>
+
जिबरईल आगे होइ जइहैं । पग डारै कहँ आयसु देइहैं ॥<br>
+
चलब रसूल उमत लेइ साथा । परग परग पर नावत माथा ॥<br>
+
`आवहु भीतर' बेगि बोलाउब । बिस्तर जहाँ तहाँ बैठाउब ॥<br>
+
 
+
झारि उमत सब बैठी जोरि कै एकै पाँति ।<br>
+
सब के माँझ मुहम्मद, जानौ दुलह बराति ॥45 ॥<br><br>
+
 
+
पुनि जेंवन कहँ आवै लागैं । सब के आगे धरत न खाँगै ॥<br>
+
भाँति भाँति कर देखब थारा । जानब ना दहुँ कौन प्रकारा ॥<br>
+
पुनि फरमाउब आप गोसाईं । बहुतै दुख देखेउ दुनियाईं ॥<br>
+
हाथन्ह से जेंवन मुख डारत । जीभ पसारत दाँत उघारत ॥<br>
+
कूँचत खात बहुत दुख पाएउ । तहँ ऐसै जेवनार जेवाँएउँ ॥<br>
+
अब जिन लौटि कस्ट जिउ करहू । सुख सवाद औ इंद्री भरहू ॥<br>
+
पाँच भूत आतमा सेराई । बैठि अघाउ, उदर ना भाई ॥<br>
+
 
+
ऐस करब पहुनाई, तब होइहि संतोख ।<br>
+
दुखी न होहु मुहम्मद, पोखि लेहु फुर पोख ॥46॥<br><br>
+
 
+
हाथन्ह से केहु कौर न लेई । जोइ चाह मुख पैठे सोई ॥<br>
+
दाँत,जीभ,मुख किछु न डोलाउब । जस जस रुचिहै तस तस खाउब ॥<br>
+
जैस अन्न बिनु कूँचै रूचै । तैस सिठाइ जौ कोऊ कूँचै ॥<br>
+
एक एक परकार जो आए । सत्तर सत्तर स्वाद सो पाए ॥<br>
+
जहँ जहँ जाइ के परै जुडाई । इच्छा पूजै, खाइ अघाई ॥<br>
+
अनचखे रअते फर चाखा । सब अस लेइ अपरस रस चाखा ॥<br>
+
जलम जलम कै भूख बुझाई । भोजन केरे साथै जाई ॥<br>
+
 
+
जेंवन अँचवन होइ पुनि, पुनि होइहि खिलवान ।<br>
+
अमृत-भरा कटोरा पियहु मुहम्मद पान ॥47॥<br><br>
+
 
+
एक तौ अमृत बास कपूरा । तेहि कहँ कहाँ शराब-तहूरा ॥<br>
+
लागब भरि भरि देइ कटोरा । पुरुष ज्ञान अस भरै महोरा ॥<br>
+
ओहि कै मिठाइ माति एक दाऊँ । जलम न मानव होइ अब काहूँ ॥<br>
+
सचु-मतवार रहब होइ सदा । रहसै कूदै सदा सरबदा ॥<br>
+
कबहुँ न खोवै जलम खुमारी । जनौ बिहान उठै भरि बारी ॥<br>
+
ततखन बासि बासि जनु घाला । घरी घरी जस लेब पियाला ॥<br>
+
सबहि क भा मन सो मद पिया । नव औतार भवा औ जिया ॥<br>
+
 
+
फिरै तँबोल, मया से कहब `अपुन लेइ खाहु ।<br>
+
भा परसाद, मुहम्मद, उठि बिहिस्त महँ जाहु ' ॥48॥<br><br>
+
 
+
कहब रसूल `बिहिस्त न जाऊँ । जौ लगि दरस तुम्हार न पाऊँ ।<br>
+
उघर न नैन तुमहिं बिनु देखे । सबहि अँविरथा मोरे लेखे ॥<br>
+
तौ लै केहु बैकुंठ न जाई । जझौ लै तुम्हरा दरस न पाई ॥<br>
+
करु दीदार, देखौं मै तोहीं । तौ पै जीउ जाइ सुख मोहीं ॥<br>
+
देखें दरस नैन भरि लेऊँ । सीस नाइ पै भुइँ कहँ देऊँ ॥<br>
+
जलम मोर लागा सब थारा । पलुहै जीउ जो गीउ उभारा ॥<br>
+
होइ दयाल करु दिस्टि फिरावा । तोहि छाँडि मोहि और न भावा ॥<br>
+
 
+
सीस पायँ भुइँ लावौं, जौ देखौं तोहि आँखि ।<br>
+
दरसन देखि मुहम्मद , हिये भरौं तोरि साखि ॥49॥<br><br>
+
 
+
सुनहु रसूल ! होत फरमानू । बोल तुम्हार कीन्ह परमानू ॥<br>
+
तहाँ हुतेउँ जहँ हुतेउ न ठाऊँ । पहिले रचेउँ मुहम्मद नाऊँ ॥<br>
+
तुम बिनु अबहुँ न परगट कीन्हेंउँ । सहस अठारह कहँ जिउ दीन्हेउँ ॥ <br>
+
चौदह खँड ऊपर तर राखेउँ । नाद चलाइ भेद बहु भाखेउँ ॥<br>
+
चार फिरिस्तन बड औतारेउँ । सात खंड बैकुंठ सँवारेउँ ॥<br>
+
सवा लाख पैगंबर सिरजेउँ । कर करतूति उन्हहि धै बँधेउँ ॥
+
औरन्ह कर आगे कत लेखा । जेतना सिरजा को ओहि देखा ? ॥<br>
+
 
+
तुम तहँ एता सिरजा, आप कै अंतरहेत ।<br>
+
देखहु दरस मुम्मद ! आपनि उमत समेत ॥50॥<br><br>
+
 
+
सुनि फरमान हरष जिउ बाढे । एक पाँव से भए उठि ढाढे ॥<br>
+
झारि उमत लागी तब तारी । जेता सिरजा पुरुष औ नारी ॥<br>
+
लाग सबन्ह सहुँ दरसन होई । ओहि बिनु देखे रहा न कोई ॥<br>
+
एक चमकार होइ उजियारा । छपै बीजु तेहि के चमकारा ॥<br>
+
चाँद सुरुज छपिहैं बहु जोती । रतन पदारथ मानिक मोती ॥<br>
+
सो मनि दिपें जो कीन्हि थिराई । छपा सो रंग गात पर आई ॥<br>
+
ओहु रूप निरमल होइ जाई । और रूप ओहि रूप समाई ॥<br>
+
 
+
ना अस कबहूँ देखा, ना केहू ओहि भाँति ।<br>
+
दरसन देखि मुहम्मद मोहि परे बहु भाँति ॥ 51॥<br><br>
+
 
+
दुइ दिन लहि कोउ सुधि न सँभारे । बिनु सुधि रहे, न नैन उघारे ॥<br>
+
तिसरे दिन जिबरैल जौ आए । सब मदमाते आनि जगाए ॥<br>
+
जे हिय भेदि सुदरसन राते । परे परे लोटैं जस माते ॥<br>
+
सब अस्तुति कै करै बिसेखा । ऐस रूप हम कतहुँ न देखा ॥<br>
+
अब सब गएउ जलम-दुख धोई । जो चाहिय हठि पावा सोई ॥<br>
+
अब निहचिंत जीउ बिधि कीन्हा । जौ पिय आपन दरसन दीन्हा ॥<br>
+
मन कै जेति आस सब पूजी । रही न कोई आस गति दूजी ॥<br>
+
 
+
मरन, गँजन औ परिहँस, दुख, दलिद्र सब भाग ।<br>
+
सब सुख देखि मुहम्मद, रहस कूद जिउ लाग ॥52॥<br><br>
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जिबराइल कहँ आयसु होइहि । अछरिन्ह आइ आगे पय जोइहिं ॥<br>
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उमत रसूल केर बहिराउब । कै असवार बिहिस्त पहुँचाउब ॥<br>
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सात बिहिस्त बिधिनै औतारा । औ आठईं शदाद सँवारा ॥ <br>
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सो सब देबउमत कहँ बाँटी । एक बराबर सब कहँ आँटी ॥<br>
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एक एक कहँ दीन्ह निवासू । जगत-लोक विरसैं कबिलासू ॥<br>
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चालिस चालिस हूरैं सोई । औ सँग लागि बियाही जोई ॥<br>
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ओ सेवा कहँ अछरिन्ह केरी । एक एक जनि कहँ सौ-सौ चेरी ॥<br>
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ऐसे जतन बियाहैं जस साजै बरियात । <br>
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दूलह जतन मुहम्मद बिहिस्त चले बिहँसात ॥53॥<br><br>
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जिबराइल इतात कहँ धाए । चोल आनि उम्मत पहिराए ॥<br>
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पहिरहु दगल सुरँग-रँग राते । करहु सोहाग जनहु मद-माते ॥<br>
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ताज कुलह सिर मुहम्मद सोहै । चंद बदन औ कोकब मोहै ॥<br>
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न्हाइ खोरि अस बनी बराता । नबी तँबोल खात मुख राता ॥<br>
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तुम्हरे रुचे उमत सब आनब । औ सँवारि बहु भाँति बखानब ॥<br>
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खडे गिरत मद-माते ऐहैं । चढि कै घोडन कहँ कुदरैहैं ॥<br>
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जिन भरि जलम बहुत हिय जारा । बैठि पाँव देइ जमै ते पारा ॥<br>
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जैसे नबी सँवारे, तैसे बने पुनि साज ।<br>
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दूलह जतन मुहम्मद बिहिस्ति करैं सुख राज ॥54॥<br><br>
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तानब छत्र मुहम्मद माथे । औ पहिरैं फूलन्ह बिनु गाँथे ॥<br>
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दूलह जतन होब असवारा । लिए बरात जैहैं संसारा ॥<br>
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रचि रचि अछरिन्ह कीन्ह सिंगारा । बास सुबास उठै महकारा ॥<br>
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आज रसूल बियाहन ऐहैं । सब दुलहिन दूलह सहुँ नैहैं ॥<br>
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आरति करि सब आगे ऐहैं । नंद सरोदन सब मिलि गैहैं ॥<br>
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मँदिरन्ह होइहि सेज बिछावन । आजु सबहि कहँ मिलिहैं रावन ॥<br>
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बाजन बाजै बिहिस्त-दुवारा । भीतर गीत उठै झनकारा ॥<br>
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बनि बनि बैठीं अछरी , बैठि जोहैं कबिलास ।<br>
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बेगहि आउ मुहम्मद, पूजै मन कै आस ॥55॥<br><br>
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जिबरईल पहिले से जैहैं । जाइ रसूल बिहिस्त नियरैहैं ॥<br>
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खुलिहैं आठौं पँवरि दुवारा । औ पैठे लागे असवारा ॥<br>
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सकल लोग जब भीतर जैहैं पाछे होइ रसूल सिधैहैं ॥<br>
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मिलि हूरैं नेवछावरि करिहैं । सबके मुखन्ह फूल अस झरिहैं ॥<br>
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रहसि रहसि तिन करब किरीडा । अमर कुंकुमा भरा सरीरा ॥<br>
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बहुत भाँति कर नंद सरोदू । बास सुबास उठै परमोदू ॥<br>
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अगर, कपूर, बेना कस्तूरी । मँदिर सुबास रहब भरपूरी ॥<br>
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सोवन आजु जो चाहै, साजन मरदन होइ । <br>
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देहिं सोहाग मुहम्मद, सुख बिरसै सब कोइ ॥56॥<br><br>
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पैठि बिहिस्त जौ नौनिधि पैहैं ।अपने अपने मँदिर सिधैहैं ॥<br>
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एक एक मंदिर सात दुवारा । अगर चँदन के लाग केवारा ॥<br>
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हरे हरे बहु खंड सँवारे । बहुत भाँति दइ आपु सँवारे ॥<br>
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सोने रूपै घालि उँचावा । निरमल कुहुँकुहुँ लाग गिलावा ॥<br>
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हीरा रतन पदारथ जरे । तेहि क जोति दीपक जस बरै ॥<br>
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नदी दूध अतरन कै बहहीं । मानिक मोति परे भुइँ रहहीं ॥<br>
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ऊपर गा अब छाहँ सोहाई । एक एक खंड चहा दुनियाई ॥<br>
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तात न जूड न कुनकुन, दिवस राति नहि दुक्ख ।<br>
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नींद न भूख मुहम्मद, सब बिरसैं अति सुक्ख ॥57॥<br><br>
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देखत अछरिन केरि निकाई । रूप तें मोहि रहत मुरछाई ॥<br>
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लाल करत मुख जोहब पासा । कीन्ह चहैं किछु भोग-बिलासा ॥<br>
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हैं आगे बिनवैं सब रानी । और कहैं सब चेरिन्ह आनी ॥<br>
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ए सब आवैं मोरे निवासा । तुम आगे लेइ आउ कबिलासा ॥<br>
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जो अस रूप पाट-परधानी । औ सबहिन्ह चेरिन्ह कै रानी ॥<br>
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बदन जोति मनि माथे भागू । औ बिधि आगर दीन्ह सोहागू ॥<br>
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साहस करै सिंगार सँवारी । रूप सुरूप पदमिनी नारी ॥<br>
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पाट बैठि नित जोहैं, बिरहन्ह जारैं माँस ।<br>
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दीन दयाल, मुहम्मद ! मानहु भोग-विलास ॥58॥<br><br>
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सुनहिं सुरूप अबहिं बहु भाँती । इनहिं चाहि जो हैं रुपवाँती ॥<br>
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सातौं पवँरि नघत तिन्ह पेखब । सातइँ आए सो कौकुत देखब ॥<br>
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चले जाब आगे तेहि आसा । जाइ परब भीतर कबिलासा ॥<br>
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तखत बैठि सब देखब रानी । जे सब चाहि पाट-परधानी ॥<br>
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दसन-जोति उट्ठ चमकारा । सकल बिहिस्त होइ उजियारा ॥<br>
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बारहबानी कर जो सोना । तेहि तें चाहि रूप अति लोना ॥<br>
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निरमल बदन चंद कै जोती । सब क सरीर दिपैं जस मोती ॥<br>
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बास सुबास छुवै जेहि बेधि भँवर कहँ जात ।<br>
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बर सो देखि मुहम्मद हिरदै महँ न समात ॥59॥<br><br>
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पैग पै जस जस नियराउब । अधिक सवाद मिलै कर पाउब ॥<br>
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नैन समाइ रहै चुप लागे । सब कहँ आइ लेहिं होइ आगे ॥<br>
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बिसरहु दूलह जोबन-बारी । पाएउ दुलहिन राजकुमारी ॥<br>
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एहि महँ सो कर गहि लेइ जैहैं । आधे तखत पै लै बैठैहैं ॥<br>
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सब अछूत तुम कहँ भरि राखे । महै सवाद होइ जौ चाखै ॥<br>
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नित पिरीत, नित नव नव नेहु । नित इठि चौगुन होइ सनेहू ॥<br>
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नित्तइ नित्त जो बारि बियाहै । बीसौ बीस अधिक ओहिं चाहै ॥<br>
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तहाँ त मीचु, न नींद, दुख, रह न देह महँ रोग ।<br>
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सदा अनँद `मुहम्मद', सब सुख मानैं भोग ॥60॥<br><br>
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02:06, 13 अक्टूबर 2007 का अवतरण