भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इन्तज़ार: सात मूड / प्रताप सहगल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=आदि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

11:30, 14 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण

(एक)
आकाश से टूटा
शून्य में लटका इक तारा
अब गिरा
अब गिरा

(दो)
घूमता हुआ श्वान
खोजता शिकार
जुटा रहा है कई विधान

(तीन)
तूफान के वेग से
अधटूटी डाल में लटका इक फूल
अब गिरा
अब गिरा

(चार)
घाटियों से गूंजकर उठती हुई आवाज़
कानों से टकरा रही निरंतर
बस टकरा रही है
अबूझ, अनअनुभूत।

(पांच)
चमड़ी के नीचे हल्का-सा शोर
दुःखी हैं आंखों के चारों कोर
दो न आने की तपिश से
और दो आने की अतिशय ठण्डक से

(छह)
दीपक की कांपती लौ
हर क्षण बुझ जाने का भय।

(सात)
कोल्हू का बैल
घूमता रहा सुबह से शाम
वहीं का वहीं।

1970