भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दिखला देते एक बार / पढ़ीस" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पढ़ीस |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> दिखला दे...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
16:35, 7 नवम्बर 2014 के समय का अवतरण
दिखला देते एक बार वह
मेरे मुख की अमर छटा जब,
हो विभोर छाती में कसकर,
मैंने चूमा कैसा ?
फिर लाऊँ ? कैसे पाऊँ ?
वह मुसकान खो गयी कब की,
चूँमू? लो चूँमूगी रो-रो,
हँसू ! हंसी थी उस दिन जैसा ?
शब्दार्थ
<references/>