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पर्वत पर उतरा इन्द्रधनुष
मैं कैसे रंग बटोरूँ।
धरा नील, नीला अम्बर
गिरि-घाटी नीले-नीले
नयन हो रहे नील-नील
मन नीलकमल-सा झूले
नील निलय की कौंध नील
मैं कैसे नीलम लोढूँ।
हरी दूर्वा दरी चतुर्दिक
दूर-दूर तक फैली
पग सकुचाते, नयन विछलते
ऐसी रची रँगोली
ऋतु-अभिसारिन सेज-सजी
मैं कैसे प्रीति न जोडूँ।
रूप विविध, आकार विविध
नव रंग नवल आभाएँ
भिन्न-भिन्न आकृतियों में
किरणों की ललित कलाएँ
नव रत्नों के रंगमहल में
कैसे तन-मन घोलूँ।
प्रकृतिमयी श्रृंगार-स्वरूपा
सपनीली-सी दृग-वनिता
खिसकाए कुहरा-पट जागे
मदिर सकामा सुंदरता
ऐसी रचना की श्री को
कैसा सिन्दूर बहोरूँ।