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मृत्युंजयक सुखद आङनमे मृत्युक ई आवाहन,
शान्ति दूतकेँ समर सिन्धुमे करय पड़ल अवगाहन।
शिवक कुटी दिस आइ पुनः भस्मासुर मातल आयल,
जकर प्राणमे महाविनाशक कीट अनन्त समायल।
सत्य अहिंसावादीकेँ मिथ्याचारी ठकलक रे!
अपने हाथेँ चिता जरा ई मृत्युद्वार तकलक रे!
मायक दूध लजौलक नहि कहियो ई भारतवासी,
आयल सम्मुख लाख परिस्थिति दुर्घटन सत्यानाशी।
जय-जय भैरवि असुर-भयाउनि पशुपति-भामिनि जागू,
शुम्भ-निशुम्भ पुनः जनमल अछि, आबहु तन्द्रा त्यागू।
रुण्डमुण्डमय करू धराकेँ, महिषासुरकेँ नाथू,
भेल पुरान तोड़ि फेकू, नव मुण्डक माला गाँथू।
कोटि-कोटि अछि शीश बलिक हित अर्पित अहिंक चरणपर,
अद्भुत ज्योतिपुंज जग व्यापत वीरक दिव्य-मरणपर।
आत्मा वीर प्रताप, शिवाजी आदिक तखन जुड़ायत,
देखि हमर पौरुष, सुटकौने नाङड़ि शत्रु पड़ायत।
जागल देशक दीपित यौवन रक्त पुनः उधिआयल,
नव-उत्साह सिन्धुमे सरिपहुँ सौंसे देश नहायल।
ठहरि सकत नहि दुर्मद दानव सुनि गर्जन प्रलयंकर,
लय त्रिशूल उठलाह पिनाकी रुद्र रूप धय शंकर।