भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बदलाव / असंगघोष" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=समय को इ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
21:06, 13 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
यह आईना
रोज-रोज
मुझे घूरता है
जब भी
मैं जाता हूँ
इसके सामने
शायद मुझे पहचानने का
गम्भीर जतन किया करता हो
मुझे घूरते-घूरते
कभी इसकी भौंहें
तन जाती हैं
जिसे देख
मेरे अन्दर का आदमी
काँप-सा जाता है
पता नहीं
अब यह क्या कहर बरपाएगा
इसे बेवजह
मुस्कराते मैं
कम ही देख पाया हूँ
शायद ही कभी यह
खिलखिलाकर हँसा हो!
कभी
इसकी आँखों में मुझे
महासमुद्र-सा अथाह
विश्वास दिखाई दता है
इसी विश्वास और इसके
मजबूत कंधों को देख
कह सकता हूँ
एक दिन
नए बदलाव के साथ
यह जरूर कुछ कर दिखाएगा।