"आखिर कब तक? / असंगघोष" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=हम गवाह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
02:56, 16 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण
कान्हा के
इस शान्त समय में
खोज रहा हूँ
स्वयं को
दरख्तों के पार
क्षितिज तक
जहाँ आभास हो रहा है
मेरे होने का
वहाँ
मैं क्यों भूल जाता हूँ
खुद की पहचान
मैं कौन हूँ
कहाँ से आया
आखिर
मुझे कोई
क्यों खोज रहा है?
बाँस के झुरमुटों में
बेखौफ चरते बायसनों
मैदानों में विचरण करते
चीतलों के बीच
अपने अस्तित्व के साथ
अचानक
चीतलों की चेतावनी सुन
सावधान हो जाता हूँ
बायसन अभी भी बेखौफ है
चीतल भाग गए हैं
मैं चौकन्ना हो
इधर-उधर देख
सूँघता हूँ
पास ही एक दुर्गन्ध
खतरा!
यहीं-कहीं
मेरे आस-पास ही है
तब मुझे अहसास होताहै
मैं कौन हूँ
क्या हूँ
यहाँ क्या कर रहा हूँ
चारों ओर देखता हूँ
बच निकलने का रास्ता, पर
सब ओर दुर्गन्ध आती प्रतीत होती
समय
अभी भी शान्त रह
अपनी गर्त में छिपाए है
तुम्हारी पदचाप
मेरी मौत
इस तरह तुम्हारी रची
यही मेरी नियति है
तथाकथित विधाता
हर बार तुम्हारे जबड़ों का ग्रास बन
अनंत आकाश में
टूटे तारों की तरह
नष्ट हो जाना।
मुझे ही क्यों
हर बार
होना पड़ता है
तुम्हारी क्रूरता का
शिकार
आखिर कब तक?