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♦ रचनाकार: चन्द्रसखी
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मति मारो दृगन की चोट रसिया, होरी में मेरे लगि जायगी॥
मैं तो नारि बिराने घर की, तुम जो भरे बड़े खोट।
अबकी बार बचाय गई हूँ, घूँघट पट की ओट॥ मति.
रसिक गोविन्द वहीं जाय खेलौ, जहाँ तिहारी जोट।
‘चन्द्रसखी’ भज बालकृष्ण छबि, हरि चरनन की ओट