भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बहारें खोती जाती हैं / जनार्दन राय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जनार्दन राय |अनुवादक= |संग्रह=प्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
05:04, 27 नवम्बर 2015 के समय का अवतरण
उम्मीदों की दुनियां मेरी बहारें खोती जाती हैं,
गमन तेरा तरुण सुनकर मलिन रह होती जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।
जिसे सींचा सदा तुमने था अपना नेह-जल देकर,
वही आशा-लता मुरझा कर देखो खोती जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।
है विद्यालय वही, वे ही सुमन, तरु-डालियाँ वे ही,
मगर मस्ती नहीं अब तो उदासी आती जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।
छोड़कर चल दिये अपने न सच होंगे कभी सपने,
हुलसने की घड़ी बीती, रुलाई आती-जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।
क्षमा करना दया करके बसा उर में सदा अपने,
नहीं भाषा, नहीं वाणी, खामोसी छाती जाती है।
बहारे खोती जाती हैं।
-समर्था,
2.8.1985 ई.