भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गोहरा पाथती स्त्री / रंजना जायसवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह=ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

00:26, 8 दिसम्बर 2015 के समय का अवतरण

बदबूदार गोबर के ढेर को
भिगोती है पानी से
खींचती है भारी कुदाल से
उसका एक हिस्सा अपनी ओर
बैठती है फिर एड़ियों के बल
कठिन मुद्रा में।
थोड़ा-थोड़ा करके हाथ से
मसलती, मिलाती है गोबर
छाँटकर अलग फेंकती है कूड़ा
एक-सार करके
जोर भर कूटती, माड़ती
थपथपाती है उसे
फिर जमाती है तह पर तह
बड़ी चौकोर पटरी से
देती है सुगढ़ आकार।
इस तरह करती है वह गोहरे तैयार।
घुटने तक लपेटे हुए धोती
कुहनी तक चढ़ाये झुल्ले की आस्तीन
सिर के आँचल को कानों के पीछे खोंसे
गन्दे हाथों से भिनभिनाती मक्खियों को भगाती
बाँह से पोंछती टपकता पसीना
गोबर की बदबू में रोटी-दाल की खुशबू सूँघती
निरर्थक को देती सार्थक आकार
करती है वह गोहरे तैयार।