"पहली सी मोहब्बत / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" के अवतरणों में अंतर
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− | मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग | + | <poem> |
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− | मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ है हयात< | + | मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ<ref>रौशन</ref> है हयात<ref>ज़िंदगी</ref> |
− | तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है | + | तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर<ref>दुनिया का ग़म</ref> का झगड़ा क्या है |
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− | तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है | + | तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है |
− | तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ | + | तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ<ref>रास्ते पर</ref> हो जाये |
− | यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये | + | यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये |
− | और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा | + | और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा |
− | राहतें और भी हैं वस्ल | + | राहतें और भी हैं वस्ल<ref>मिलन</ref> की राहत के सिवा |
− | मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग | + | मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग |
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− | और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा | + | और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा |
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15:24, 19 अप्रैल 2016 के समय का अवतरण
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग
मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ<ref>रौशन</ref> है हयात<ref>ज़िंदगी</ref>
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर<ref>दुनिया का ग़म</ref> का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम<ref>दुनिया, ज़माना</ref> में बहारों को सबात<ref>स्थिरता</ref>
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ<ref>रास्ते पर</ref> हो जाये
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल<ref>मिलन</ref> की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग
अनगिनत सदियों के तारीक<ref>अँधेरा</ref> बहिमाना<ref>निर्मम</ref> तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस<ref>मुलायम कपड़ा</ref>-ओ-कमख़्वाब<ref>बेशकीमती कपड़ा</ref> में बुनवाये हुये
जा-ब-जा<ref>हर कहीं</ref> बिकते हुये कूचा-ओ-बाज़ार<ref>गली और बाज़ार</ref> में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाये हुये
जिस्म निकले हुये अमराज़<ref>बीमारियों</ref> के तन्नूरों<ref>भट्ठी</ref> से
पीप बहती हुई गलते हुये नासूरों<ref>ज़ख्म</ref> से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग