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"झाँकी / शरद कोकास" के अवतरणों में अंतर

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00:17, 1 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

विज्ञान के पहियों पर धर्म सवार है
सजीव झाँकियों में गतिमान है आस्था
महाकाव्यों और पुराणों से
पात्रों का आगमन जारी है
अगोचर छù गोचर बन क्रिड़ामग्न है
व्यतीत से निकल कर आना मृतकों का
समा जाना जीवितों की देह में
अभिनय मात्र नहीं है
यह मनुष्य के मस्तिष्क की कल्पना शक्ति की
चरम अभिव्यक्ति है

राम से भरत मिलाप का दृश्य
भाव विह्वल करता है दर्शकों को
अपने बेटे पर उठी हरिश्चन्द्र की तलवार
उनका मर्म चीरती है
दशानन के धड़ से शीश अलग होते देख
वीर भोग्या वसुन्धरा की गर्वोक्ति के साथ
उनकी भुजाएँ फड़कती हैं
भक्ति के सागर में गोते लगाता है मन
कान्हा की माखन चोरी व रासलीला देखकर

इन दृश्यों के पीछे काल के अदृश्य पृष्ठ भाग में
उपेक्षित एकलव्य का कटा अंगूठा फड़फड़ाता है
छल से मारे गए शम्बूक का कटा सर
स्वप्नों में बड़बड़ाता है
दृश्य के दृश्य होने पर सन्देह के बावजू़द
घोषित धर्म की पैथालॉजी लैब में
सत्यवती के वस्त्रों पर गिरे शांतनु के वीर्य
शूर्पणखा की कटी नाक से बहते आसुरी रक्त का
वास्तविक परीक्षण सम्भव नहीं है।

अलग-अलग ग्रंथों में वर्णित कथा रूपकों को
चित्ररूप देने वाली इन झाँकियों में
अद्यतन अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं
बुद्ध को भिक्षा में क्यों दिया गया बासी माँस
कलिंग युद्ध के बाद अहिंसक बने अशोक की
पाकशाला में मोरों का माँस क्यों पकाया गया
अश्वमेघ के अश्वों की लगाम थामें
मदमस्त राजपुत्रों के मद ने किस तरह
साम्राज्यवाद की अवधारणा को जन्म दिया

शब्द को दृश्य में परिवर्तित करने की कला के अंतर्गत
सायास दुर्लक्ष्य किए जाने वाले दृश्यों में
ताजमहल को दुनिया का अजूबा बनाने वालों के
कटे हाथ नहीं हैं
श्रद्धा, भावना और आँसुओं का एक व्यापार है
फिर वह सलीब पर लटकते
किसी माँ की कोख के हिस्से का क्यों न हो
काले लिबास में छाती पीटती
दुख को सार्वजनिक करती मनुष्यता का क्यों न हो

अभी गूंज रही है वेदों की अलिखित ऋचाएँ
पृथ्वी से पहले सत नहीं था असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं था आकाश भी नहीं
न कुछ दृश्य था न कुछ अदृश्य
इन ऋचाओं को सुने जाने का शाप भोगती मानवता
पिघला सीसा कानों में उंडेले जाने के भय से आक्रांत
इसी अदृश्य के दृश्य में भटक रही है

सत द्वापर त्रेता कलि के भरम में
युगों को बाँटने वाले प्रदर्शन के इस युग में
केवल गौरव और अहम की झाँकियाँ हैं
संस्कृति के आवास मंे सत्ता का प्रदर्शन है
धर्म व राजनीति का परिणय प्रसंग है
महात्माओं का आशीष राजाओं का दर्शन है

फटी जेब से टपकती इच्छाओं के बरअक्स
चमचमाते बाज़ारों में सपनों के दृश्य हैं
ग़रीब की झोपड़ी में रखे बुद्धू बक्से में
खाते-पीते व्यभिचार से ऊबे जनों के दृश्य हैं

ऐसे में बवाल के लिए यह बात काफ़ी नहीं
कि गणतंत्र दिवस की परेड में
दिखाई जाने वाली विकास की झाँकियों में
भूख से मरते आदिवासियों का दृश्य क्यों नहीं है।

-1999