"पुरुष / शरद कोकास" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |अनुवादक= |संग्रह=हमसे त...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
00:30, 1 जुलाई 2016 के समय का अवतरण
पक्षियों के पास पंख थे और
आकाश में उड़ान के लिए कोई प्रतिबंध न था
वहीं रेंगने वाले जीव मुक्त थे अपने नर या मादा होने के बोध से
क्षणों में नाप लेते थे पृथ्वी विशालकाय जीव
यही था पुरुष का दुख
कि सजीवों की श्रेणी में जन्म लेने और
अपनी प्रजाति में स्तनपायी कहलाने के बावजूद
उसके स्तनों में दूध नहीं था
स्त्री की तरह सारे अंग उसके पास थे
बस कोख नहीं थी
सो संतान को जन्म देने का सुख भी उसे हासिल नहीं था
जिस अक्ल से उसने अपनी प्रजाति को यह नाम दिया
उसी अक्ल से उसने दुख दूर करने के उपाय किए
स्त्री के गर्भ में बीज बोने से लेकर
पृथ्वी के गर्भ में बीज बोने और इस प्रक्रिया में
दोनों का स्वामी कहलाने के बीच
बहुत कुछ घटना शेष था
इधर चाँद की तरह बढ़ रहा था स्त्री का पेट
और पाँव थे कि अपने मुहावरे में भारी हो रहे
इच्छा की आँख में था हिरण का ताज़ा माँस
और ताकत स्वर्ण मृग बनने को विवश
पुरुष के अहं में अवसर की यह अनायास छलांग थी
जो आगे चलकर उसकी सत्ता का नियामक बनने वाली थी
जंगल-जंगल भागा वह हिरण मोर खरगोशों के पीछे
भूख के स्वप्न में तैरती थीं मछलियाँ
उसने मथ डाले तमाम नदी तालाब और सागर
क्षितिज छूने की होड़ थी उसकी दौड़ में
मज़बूत होती माँसपेशियों में लहराता था ताक़त का परचम
यह आज़ादी की प्राणवायु थी
जो उसके फेफड़ों के विकसित होते प्रकोष्ठों में घर बना रही थी
उसके नासापुटों में थी दुधमुँहे चाँद की गंध
जिसे झाड़ियों के पीछे उसकी स्त्री ने जन्म दिया था
उसके तीरों से बिंधकर काल के मुख में समाते प्राणियों के चेहरे
उसकी संवेदना में विचलन पैदा करते
उसकी दया पर हावी होती उसके बच्चों की भूख
इस तरह उसने क्रूरता का समायोजन किया
जीत की खुशी लिए लौटता वह जंगलों-पहाड़ों से
जिसे शब्दों में प्रकट करते हुए गर्वर हो उठता वह
शिकार न मिल पाने की स्थिति में
हताशा इन्हीं शब्दों में बुदबुदाती
खीझ की कमान से निकलते क्रोध का बाण
जिसका पहला शिकार उसकी अपनी स्त्री होती
उसके पेट से जुड़ा था उसके आश्रितों का पेट
उसके नाम से उसका नाम जुड़ रहा था
परमपुरुष की शक्ल में ईश्वर को अपना नाम दे रहा था पुरुष
कृपाओं के एवज में जन्म ले रही थी अपेक्षाएँ
और वह इसे अपना धर्म समझ रहा था
गृह प्रबंधन के इस उद्यम में घर व घर से बाहर
श्रमिक प्रबंधक की अलग-अलग भूमिकाओं में जीता रहा वह
हक़ और फर्ज़ के द्वंद्व में
संतानों से अपेक्षाओं के मोहभंग में
बिगड़ता रहा उसका मानसिक संतुलन
उसने इसे पुरुषोचित स्वभाव का नाम दिया
सदियों तक चलने वाले इस क्रम में
पुरुषत्व के साथ किए पुरुषार्थ के उपक्रम में
गुम हेाती गई उसकी अस्मिता
सामाजिक ज़िम्मेदारियों का एक विशाल पहाड़ था
और बौने थे उसके निजी दुख
उसकी कमज़ोरी का पर्याय हो गए उसके आँसू
व्यक्तिगत चिंता का विषय बनकर रह गई उसकी घुटन
सार्वजनिक चर्चा के दायरे में नहीं आ पाई उसकी पीड़ा
प्रकृति के साथ संयोग कर विश्व निर्माा का दर्शन बना वह
बेहद उबाऊ और थकावट भरे इस काम के बीच
यदाकदा उसने मनोरंजन के साधन जुटाए
ताज़ादम होकर काम में जुटने के पहले कुछ आराम किया
नीति ने अपने शब्दकोश में इसे स्वार्थ का नाम दिया
कहीं कोई बयान नहीं अपने पक्ष में
अपने जैविक विकास के समर्थन में कोई पैरवी नहीं
अपने दायित्व बोध के साथ अब तक जुटा है पुरुष
एक भ्रम बना रखा है उसने अपने इर्द-गिर्द
जो कछुए के कवच की तरह उसकी रक्षा करता है
वह सोचता है
पृथ्वी उसी की पीठ पर टिकी है।
-2003