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00:34, 1 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

न उमस महसूस हो रही थी वातावरण में
न घुटन का कहीं नामोनिशान था
चिपचिपाहट भरा पसीना भी
भीड़ की देह से महक नहीं रहा था
धूल की भी हिम्मत नहीं थी
कि उड़कर सर पर सवार हो

यह सर्दियों की एक शाम थी
और समंदर की लहरों के जागने का वक़्त था
बस की खिड़की से आए हवा के ताजे़ झोंके ने
हमारी बातचीत में दख़ल देते हुए कहा
भीड़ के बीच भी प्रेम
अपनी अलग दुनिया बस लेता है
जिसमें कोई जगह नहीं होती
दुख दुश्चिंता और दुर्दिनों के लिए
बस चलते चलो इसी तरह...
अभी आखि़री स्टॉप बहुत दूर है।

-2009