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दूती-लक्षण

मिलि न सकत जो तिय पुरुष तिनि मैं हित उपजोइ।
छल बल आदि मिलावई दूती कहिये सोइ॥630॥

जान दूती भेद

पठए आवै और के दूती कहिये सोइ।
अपनी पठई हार सों जानु दूतिका जोई॥631॥

त्रिबिध दूती भेद-वर्णन

अनसिखई सिखई मिलै सिखई कहै बखानि।
उत्तिम मध्यम अधम यह तीन भाँति की जानि॥632॥

उत्तम दूती-उदाहरण

जिहिं मानिक सो मन दयो आइ तिहारे हाथ।
तिहिं यहि अपनो रूपहू चलि दरसैये नाथ॥633॥
सिर कलंक कत लेति मुख ससि निकलंकी पाइ।
वह चकोर लौ दिन भरति बिरह अँगारन खाइ॥634॥

मध्यम दूती-उदाहरण

बेगि आइ सुधि लेहु यह अली कह्यौ घनस्याम।
हौं देख्यौ वह चातिकी रटति तिहारो नाम॥635॥

अधमा दूती-उदाहरण

मोह कह्यौ कहि यौ उतै बन माली को पाइ।
नवल बेलि सीचें... बिना दिन प्रति सूखत जाइ॥636॥

नायक बचन-जान दूती के प्रति

जमुना तट ठाढी हुती पहिरि नील पट आइ।
वह घूंघुटवारी मिलौ तब जिय की रट जाइ॥637॥
मोहि कहत घनस्याम तौ सुनि लीजै यह बैन।
बिन उर लाये दामिनी केहि बिधि राखौं चैन॥638॥

जान दूती का उत्तर

कौन मानुषी जेहि लिये एतो करत उपाइ।
तिल मैं जाइ तिलोत्तमै नभ ते मिलँऊ ल्याइ॥639॥

जान दूती-त्रिबिध भेद

हित की अरु हित अहित की अरु अहितों की बात।
कहै सोहिता हिताहित अरु अहिता बिख्यात॥640॥

हिताबान दूती-उदाहरण

कीजै सुख घन स्याम हौं आजु पवन के रंग।
वहि चपला चमकायहौं ल्याइ तिहारे अंग॥641॥

हिता अहितावान दूती-उदाहरण

समय पाइ हौं देहुँगी प्यारी तुम्हहि मिलाइ।
बिनु घन कैसे बीजुरी कहौ दिखाइ जाइ॥642॥
आतुर होहुँ न लाल अब जतन कीजियत औरि।
बिन फांदे मृग मिलत नहिं जौ उठि कीजै दौरि॥643॥

अहिताबान-दूती

लगत बात ताकी कहा जाको सुच्छम गात।
नैकु सांस के लगत हीं पास नहीं ठहरात॥644॥
स्याम मधुप लौं जिनि फिरौ वह चंपक सी नारि।
रस नहि दैहै कैसहूँ मुख की प्रीति निहारि॥645॥

दूती के काज-कथन

अस्तुति अरु निंदा बिनै बिरह निवेदनु जाइ।
अरु परबोध मिलाइबो दूती जान सुभाइ॥646॥

नायिका की अस्तुति

निज तन जलसाई रहत करि समुद्र आगार।
तिन को मन पावत नहीं तुव तन पानिप पार॥647॥
दिपति देह छबि गेहकी केहि बिधि बरनी जाइ।
जिहि लखि चपला गगन ते छित पर फरकत आइ॥648॥
कसकि कसकि पूछति कहा चसकि मसकि अनुमान।
खसकि जायगी ठसकि यह नैकु ससकि सुनि कान॥649॥

नायक की अस्तुति

तिनके रूप अनूप की केहि बिधि कहिये बात।
जिन मोहन छबि मनधरै मन मोह्यो सो जात॥650॥

नायिका की निंदा

कहा आपने रूप पर फूलि रही है हाल।
तोहू ते अति आगरी केति नागरी बाल॥651॥

नायक की निंदा

सीस मुकुट कटि काछिनी फाटी साटी हाथ।
मिलन चहत यहि रूप पर राधाजू के साथ॥652॥

नायिका से विनय

कामिनि जेहि चितवत हनै ये दृग बान चलाइ।
तेहि ज्यावन की जतन अब कीजै मुरि मुसुकाइ॥653॥

नायक से विनय

जाहि बचायो मेघ तें करि गिरिवर की छांहि।
ताहि स्याम जिनि जारियो बिरह अनल झरि माँहि॥654॥

नायिका का विरह-निवेदन

बाके नननि रावरी बसी लोनाई जाइ।
लोनखार असुँवान तें पायो भेद बनाइ॥655॥
कहा कहौं बाकी दसा जब खग बोलत राति।
पीय सुनति हीं जियति है कहा सुननि मरि जाति॥656॥

नायक का विरह-निवेदन

जब तें आई तड़ित लौं नीलाम्बर मैं कौंधि।
तब तें हरि चकृत भये चखन लागि चकचौंधि॥657॥
परे सूम अरु सरप की एकै गति दरसाइ।
धनि मनि बिछुरे दुहुन की सीस धुनत निज जाइ॥658॥

नायिका के लिए प्रबोध

अब कीजै आनंद यह बनो ब्यौंत अनयास।
तेरे मित अरु कंत की दोउ अटारी पाख॥659॥

नायक को प्रबोध

हरि चिंता नहिं कीजिए अपने मनमें ल्याइ।
या होरी के खेल में गोरी मिलिहै आइ॥660॥

दंपति को मिलाना

रमनी रमनि मिलाइ यों दूती रहत बराइ।
घन दामिनि को जोरि कै ज्यौं समीर रहि जाइ॥661॥