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(राग कान्हरा-ताल कहरवा)
आरति भक्तञ्कल्पतरु हरि की।
दनुज-दर्पहर नर-केञ्सरि की॥
रूप भयानक स्तभविदारी,
असुर हिरण्यकशिपु-संहारी,
भक्त-हेतु अद्भुत तनुधारी,
सुरवन्दित प्रभु सर्वोपरि की॥
मंगलमय सब मंगलकारी,
शरणागत-वत्सल भयहारी,
सौयरूप जन-हृदय-विहारी,
अघतरु-मूलोत्पाटक करि की॥
अखिल विश्व-शोधक मलहारी,
जनप्रहलाद सुहृद सुखकारी,
जयति जयति जय जय दैत्यारी।
चिदानन्दमय तमहर-हरि की॥