"तृतीय खंड / केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त ।<br> | ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त ।<br> | ||
− | त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ॥१॥ | + | त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ॥१॥ <br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 21: | पंक्ति 21: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
− | ::तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति॥२॥ | + | ::तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति॥२॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 32: | पंक्ति 32: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
− | तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥३॥ | + | तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥३॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 44: | पंक्ति 44: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
::तदभ्यद्रवत्तमभ्य वदत्कोऽसीत्यग्निर्वा ।<br> | ::तदभ्यद्रवत्तमभ्य वदत्कोऽसीत्यग्निर्वा ।<br> | ||
− | ::अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥४॥ | + | ::अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥४॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 55: | पंक्ति 55: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
− | तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥५॥ | + | तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥५॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 67: | पंक्ति 67: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
::तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक ।<br> | ::तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक ।<br> | ||
− | ::दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥६॥ | + | ::दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥६॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 78: | पंक्ति 78: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
− | अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥७॥ | + | अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥७॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 90: | पंक्ति 90: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
::तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा ।<br> | ::तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा ।<br> | ||
− | ::अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥ | + | ::अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 101: | पंक्ति 101: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
− | तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥९॥ | + | तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥९॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 113: | पंक्ति 113: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
::तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न ।<br> | ::तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न ।<br> | ||
− | ::शशाकादतुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥१०॥ | + | ::शशाकादतुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥१०॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 125: | पंक्ति 125: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति ।<br> | अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति ।<br> | ||
− | तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥११॥ | + | तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥११॥<br> |
</span> | </span> | ||
पंक्ति 137: | पंक्ति 137: | ||
<span class="upnishad_mantra"> | <span class="upnishad_mantra"> | ||
::स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ ।<br> | ::स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ ।<br> | ||
− | ::हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥१२॥ | + | ::हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥१२॥<br> |
</span> | </span> | ||
20:22, 25 मई 2008 का अवतरण
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त ।
त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ॥१॥
विजयाभिमानी देवों ने माना स्वयम को ब्रह्म ही।
अतिशय अहंकारी बने, होता विनाशक अहम् ही॥
केवल निमित्त थे देवता, यह ब्रह्म की ही विजय थी।
माध्यम थे केवल देवता, शक्ति प्रभु की अजय थी॥ [ १ ]
- तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति॥२॥
- तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति॥२॥
- मिथ्याभिमानी देवताओं से, दयानिधि विज्ञ थे।
- भक्त वत्सल भक्त वत्सलता से भी तो कृतज्ञ थे॥
- हित दर्प नाश को, दिव्य यक्ष के रूप में प्रभु आ गए।
- लख दिव्य रूप विराट अद्भुत देवता चकरा गए॥ [ २ ]
- मिथ्याभिमानी देवताओं से, दयानिधि विज्ञ थे।
तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥३॥
इन्द्र देव ने, अग्नि देव से, नम्र होकर यह कहा।
भलिभांति जानिए कौन है अति दिव्य यक्ष महिम महा॥
श्री अग्नि देव को बुद्धि शक्ति का अधिक ही कुछ गर्व था।
इति विदित करता हूँ अभी, है कौन मुझसे अन्यथा॥ [ ३ ]
- तदभ्यद्रवत्तमभ्य वदत्कोऽसीत्यग्निर्वा ।
- अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥४॥
- तदभ्यद्रवत्तमभ्य वदत्कोऽसीत्यग्निर्वा ।
- अति दिव्य यक्ष का अग्नि देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?
- हे! अहम मन्यक देवता क्या तुम ही सार्वभौम हो ?
- "मैं तेज पुंज स्वरूप हूँ", प्रसिद्ध अग्नि हूँ अति महे।
- तुम कौन जो जाना नहीं, मुझे जातवेदा सब कहें॥ [ ४ ]
- अति दिव्य यक्ष का अग्नि देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?
तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥५॥
हे जातवेदा ! अग्नि नाम के, शक्ति क्या सामर्थ्य है ?
उत्तर दिया तब अग्नि ने, सगर्व जिसका अर्थ है॥
पृथ्वी में यह जो कुछ भी है, सब मेरी ही सामर्थ्य है।
क्षण मात्र में करूं भस्म सब, मुझे कुछ नहीं असमर्थ है॥ [ ५ ]
- तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक ।
- दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥६॥
- तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक ।
- रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने अग्नि देव के सामने।
- करो भस्म तो जानूँ भला, अग्नित्व कितना आपमें॥
- पूर्ण दाहक शक्ति व्यर्थ थी, मौन हतप्रभ आ गए।
- यह दिव्य यक्ष महामहिम, अनभिज्ञ हम चकरा गए॥ [ ६ ]
- रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने अग्नि देव के सामने।
अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥७॥
तब वायुदेव से देवों ने जाकर कहा अब आप ही।
भली भांति करिए ज्ञात कि है कौन यह अतिशय मही॥
अप्रतिम शक्तिमय वायुदेव को बुद्धि शक्ति का गर्व था।
अभी दिव्य यज्ञ को ज्ञात कर मैं, दूर करता हूँ व्यथा॥ [ ७ ]
- तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा ।
- अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥
- तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा ।
- अति दिव्य यक्ष का वायु देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?
- हे! अहम् मन्यक वायु देव क्या तुम ही सार्वभौम हो ?
- उत्तर दिया तब वायु ने, गुण गर्व गौरव दर्प से।
- मातरिश्रिवा हूँ प्रसिद्ध वायु, सृष्टि मम संसर्ग से॥ [ ८ ]
- अति दिव्य यक्ष का वायु देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?
तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥९॥
भू द्यौ में वायु देव तो, आधार बिन विचरण करें।
सामर्थ्य शक्ति का आप तो, मुझसे भी कुछ विवरण करें॥
उत्तर दिया यह वायु ने, मेरी शक्ति इतनी भव्य है।
सब कुछ उड़ा दूँ निमिष में, पृथ्वी में जो दृष्टव्य है॥ [ ९ ]
- तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न ।
- शशाकादतुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥१०॥
- तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न ।
- रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने वायु देव के सामने।
- इसको उड़ा दो जानूँ, कितना वायु तत्व है आपमें॥
- शक्ति प्रभु ने रोकी तो फिर, वायु तत्व का अर्थ क्या ?
- लज्जित हो लौटे, दिव्य यक्ष के ज्ञान की सामर्थ्य क्या ? [ १० ]
- रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने वायु देव के सामने।
अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति ।
तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥११॥
फिर इन्द्र देव से देवताओं ने कहा अब आप ही।
जानिए कि कौन है, अति दिव्य यक्ष महिम मही॥
इति तथा कथ दिव्य यक्ष के निकट इन्द्र त्वरित गए।
वह आदि ब्रह्म तो निमिष मात्र में ही तिरोहित हो गए॥ [ ११ ]
- स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ ।
- हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥१२॥
- स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ ।
- फिर यक्ष के स्थान पर ही, इन्द्र स्थित रह गए।
- उमा रूपा ब्रह्म विद्या को देख हतप्रभ रह गए॥
- सर्वज्ञ ज्ञाता उमा रूपा, मर्म यक्ष का आप ही।
- कुछ कहें सादर विनत हूँ, सर्वज्ञ आपसा है नहीं॥ [ १२ ]
- फिर यक्ष के स्थान पर ही, इन्द्र स्थित रह गए।