भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सोचा हुआ कहाँ / प्रमोद तिवारी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमोद तिवारी |अनुवादक= |संग्रह=म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
12:44, 23 जनवरी 2017 के समय का अवतरण
तेज धूप में
बादल लाऊं
बादल लाने
पर्वत जाऊं
पर्वत की चोटी से
उड़कर
घर-घर
नेह नीर बरसाऊं
सोचा तो यह था
मैंने पर
सोचा हुआ
कहां होता है
दीवारों पर टंगा कलंडर
करता रहता है फर-फर-फर
मैं भी उसकी तरह
हर पहर
काबिज रहूं
समय की गति पर
सोचा तो यह था
मैंने पर
सोचा हुआ
कहां होता है