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"हैं फूल और काँटे मुझको दोनों समान / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर

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फूल बन कर बिछ सको यदि तुम नहीं
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हैं फूल और काँटे मुझको दोनों समान
शूल बन कर भी न फैलो राह में
+
तुम फूल बनो या शूल मुझे परवाह नहीं।
चल रहा चलने मुझे दो।
+
  
आफतें यों ही हजारों रात-दिन
+
मैंने रवि बन कर शुरू किया जबसे चलना
सीस पर गिरतीं हमारे टूट कर
+
चल रहा तभी से मैं अपने पथ पर अब तक;
किन्तु मैं उनको निरन्तर झेलता
+
दुनिया की ओर बढ़ाए मैंने हाथ, किन्तु
गीत गा-गाकर स्वरों में भूल कर।
+
भर सका न कोई मुझे अंक में आज तलक।
  
मैं नहीं बाहर गया मन की व्यथा
+
जलती पगडंडी पर ये प्राण अकेले ही
विश्व में कहने किसी से आज तक
+
अपना तन जला-जलाकर चलते जाते हैं;
औ’ न जाऊँगा कभी, मैं जानता,
+
नभ की जलती छाया में हँस-हँस कर दिन भर
कौन सुनता है किसी की बात तक।
+
अन्तर का मृदु संगीत सुनाते जाते हैं।
  
टाल देता है हँसी में अश्रु की
+
है धूप और छाया मुझको दोनों समान
बात औरों की सदा संसार यह
+
तुम धूप बनो या छाँह मुझे परवाह नहीं॥1॥
मैं इसी से मुसकराकर ही स्वयं,
+
पोंछ लेता आँसुओं की धार यह।
+
  
मौन होकर बैठ कर एकान्त में,
+
मैं कई बार ठोकर खा-खाकर गिरा यहाँ
छेड़ वीणा के सुरीले तार को
+
पर हर ठोकर इस जीवन का उत्थान बनी;
यत्न करता भूलने का मैं सदा
+
चढ़ते-चढ़ते फिसला कितनी ही बार किन्तु
विश्व के विष से भरे व्यवहार को।
+
हर फिसलन में मेरी मंजिल आसान बनी।
सिर्फ इतना चाहता हूँ
+
  
तार बन झनकार दो यदि तुम नहीं
+
मेरे मन का माँझी अपनी जीवन-नौका
स्वर विषम बन भी न आओ राग में
+
तूफानों में ही खेने का अभ्यासी है;
गा रहा गाने मुझे दो॥1॥
+
तट खींच लायगी तूफानों के बीच स्वयं
 +
धारा जीवन की, इसका वह विश्वासी है।
  
चाहता हूँ मैं कभी भी यह नहीं,
+
इसलिये मुझे तूफान और तट हैं समान
स्वर्ग का ऐश्वर्य मेरे पास हो
+
तट या कि बनो तूफान मुझे परवाह नहीं॥2॥
और यह भी कामना मेरी नहीं
+
स्वर्ग का शृंगार मेरा दास हो।
+
  
चेतना का जागरण जब से हुआ
+
जो कुछ दुनियाँ के साथ किया मैंने अब तक
बात तब से है यही उर में जमी
+
उसके बदले कुछ मिले मुझे यह चाह नहीं,
देवता आता नहीं है स्वर्ग से
+
मैंने केवल अपना कर्तव्य निभाया है
देवता बनता धरा का आदमी।
+
दुनियाँ भूले या याद करे परवाह नहीं।
  
किन्तु बनना आदमी जितना कठिन,
+
मैं नहीं अमरता का पद पाने को उत्सुक
देवता बनना कहीं उससे सरल
+
केवल मानव बनने की मुझ में अभिलाषा;
धारणा मेरी अरे निश्चित यही
+
विष से डरता देवत्व, अमृत को लालायित
आदमी बनना कठिन पहले पहल।
+
मैं शंकर बन फैले विष पीने का प्यासा।
  
मानता हूँ जन्म को औ’ मृत्यु को
+
विष औ’ अमृत दोनों ही मुझको हैं समान
जिन्दगी की धार के दो कूल मैं
+
तुम अमृत या विष बनो मुझे परवाह नहीं॥3॥
बह रहा हूँ खोजने नर-रत्न को
+
इस धरा के सिन्धु-तट की धूल में।
+
सिर्फ इतना चहता हूँ
+
  
धार बन कर आ सको यदि तुम नहीं
+
उस ऊषा का शृंगार किया जिन फूलों ने
बांध बन कर भी न आओ बीच में
+
उनको निश्चय ही रे मुरझा जाना होगा;
बह रहा बहने मुझे दो॥2॥
+
उस संध्या का शृंगार किया जिन दीपों ने
 +
उनको कल निश्चय ही रे बुझ जाना होगा।
  
प्रात होते ही शुरू चलना किया
+
जो बसा प्राण का पंछी तन-तरु कोटर में
चल रहा तब से धरा की राह पर
+
तन-मरु गिरने पर उसको उड़ जाना होगा;
प्रात से रवि बन शुरू चढ़ना किया
+
मिट्टी का तन जिस पर जग की इतनी ममता
चढ़ रहा तब से गगन की राह पर
+
उसको निश्चित मिट्टी में मिल जाना होगा।
 
+
और जीवन की दुपहरी भी हुई
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पर नहीं जाना तनिक विश्राम भी
+
शून्य में जलता अकेला ही रहा,
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किन्तु कहने का लिया कब नाम भी!
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प्यार से अंगार-पथ अपना लिया
+
फिर अरे शृंगार का संसार क्या?
+
विश्व में आधार कुछ पाया नहीं
+
मैं स्वयं आधार अपना पा गया।
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एक यह निज शक्ति औ’ विश्वास ले
+
जिन्दगी की साँझ में मैं ढल रहा
+
दिवस में रवि बन, निशा में दीप बन,
+
मैं गहन तम की शिला पर जल रहा।
+
सिर्फ इतना चाहता हूँ
+
 
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स्नेह बन उर भर सको यदि तुम नहीं
+
वायु बन कर भी बहो मत रात में
+
जल रहा जलने मुझे दो॥3॥
+
  
 +
इसलिये धूल-शृंगार मुझे दोनों समान
 +
तुम धूल या कि शृंगार बनो परवाह नहीं॥4॥
 
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17:36, 6 मार्च 2017 के समय का अवतरण

हैं फूल और काँटे मुझको दोनों समान
तुम फूल बनो या शूल मुझे परवाह नहीं।

मैंने रवि बन कर शुरू किया जबसे चलना
चल रहा तभी से मैं अपने पथ पर अब तक;
दुनिया की ओर बढ़ाए मैंने हाथ, किन्तु
भर सका न कोई मुझे अंक में आज तलक।

जलती पगडंडी पर ये प्राण अकेले ही
अपना तन जला-जलाकर चलते जाते हैं;
नभ की जलती छाया में हँस-हँस कर दिन भर
अन्तर का मृदु संगीत सुनाते जाते हैं।

है धूप और छाया मुझको दोनों समान
तुम धूप बनो या छाँह मुझे परवाह नहीं॥1॥

मैं कई बार ठोकर खा-खाकर गिरा यहाँ
पर हर ठोकर इस जीवन का उत्थान बनी;
चढ़ते-चढ़ते फिसला कितनी ही बार किन्तु
हर फिसलन में मेरी मंजिल आसान बनी।

मेरे मन का माँझी अपनी जीवन-नौका
तूफानों में ही खेने का अभ्यासी है;
तट खींच लायगी तूफानों के बीच स्वयं
धारा जीवन की, इसका वह विश्वासी है।

इसलिये मुझे तूफान और तट हैं समान
तट या कि बनो तूफान मुझे परवाह नहीं॥2॥

जो कुछ दुनियाँ के साथ किया मैंने अब तक
उसके बदले कुछ मिले मुझे यह चाह नहीं,
मैंने केवल अपना कर्तव्य निभाया है
दुनियाँ भूले या याद करे परवाह नहीं।

मैं नहीं अमरता का पद पाने को उत्सुक
केवल मानव बनने की मुझ में अभिलाषा;
विष से डरता देवत्व, अमृत को लालायित
मैं शंकर बन फैले विष पीने का प्यासा।

विष औ’ अमृत दोनों ही मुझको हैं समान
तुम अमृत या विष बनो मुझे परवाह नहीं॥3॥

उस ऊषा का शृंगार किया जिन फूलों ने
उनको निश्चय ही रे मुरझा जाना होगा;
उस संध्या का शृंगार किया जिन दीपों ने
उनको कल निश्चय ही रे बुझ जाना होगा।

जो बसा प्राण का पंछी तन-तरु कोटर में
तन-मरु गिरने पर उसको उड़ जाना होगा;
मिट्टी का तन जिस पर जग की इतनी ममता
उसको निश्चित मिट्टी में मिल जाना होगा।

इसलिये धूल-शृंगार मुझे दोनों समान
तुम धूल या कि शृंगार बनो परवाह नहीं॥4॥