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"प्रीति पर पहरा / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर

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ज्योति को जिसने दिया है जन्म वह
है तिमिर अभिशाप, कैसे मान लूँ!

जब कि तम के आवरण में थी प्रकृति
चल रहा था सृजन का अविराम क्रम;
उस सृजन के ही क्षणों में था हुआ
चाँद-सूरज और तारों का जनम।

मैं समझ पाया नहीं फिर किसलिए
कोसती दुनिया प्रलय को व्यर्थ ही;
सृष्टि को जिसने दिया है जन्म वह
प्रलय है अभिशाप, कैसे मान लूँ।1।

अंत होता है यहाँ हर आदि का
बात है अपनी जगह पर यह सही;
पर सही यह भी कि नूतन रूप दे
जन्म देता आदि को है अंत ही।

इसलिए समझा नहीं फिर किसलिए
मृत्यु से भयभीत हम क्यों इस तरह
जिन्दगी जिसने नई दी हो भला
मृत्यु वह अभिशाप, कैसे मान लूँ।2।

हर सृजन संभव हुआ है तब कि जब
आदमी पागल हुआ है प्यार में;
पर धरा से उठ, गगन में गा उठा
ज्यों पिकी पागल बसंत-बहार में।

मैं समझ पाया नहीं फिर किसलिए
प्रीति पर पहरा लगा है नीति का;
गीत को जिसने दिया है जन्म वह
प्रीति है अभिशाप, कैसे मान लूँ।3।

3.1.77