भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पराए हो गए / देवेंद्रकुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेंद्रकुमार |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:51, 21 मार्च 2017 के समय का अवतरण
परदेस गए
पराए हो गए
यों सहमे खड़े हो
आओ, चले आओ!
देखो कुछ नहीं बदला
यह घर, ये दीवारें
तुलसी का चौरा
कोने में लटका घोंसले का खंडहर,
अंदर अम्मां
सुमरिनी, खड़ाऊं फूल चढ़ी
वह कोना तुम्हारा
उसी तरह।
बाहर नीम तले भोलू चा वाला
रिक्शा स्टैंड वही टुटहा
मक्खियां बेख़ौफ पुरानेपन से।
हां, उस कोठरी में
खेलते थे लुकाछिपी
पिटे और लड़े
अब बंद है बचपन-
आओ खोलें!
अब छोड़ो भी
तुम्हीं कौन वही रह गए हो
चले ही आओ
मिलकर फाड़ते रहें
पुरानी चिट्ठियां
गीलापन बिना पोंछे हुए