भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पर्यावरण-प्रदूषण / प्रदीप प्रभात" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप प्रभात |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:52, 5 जून 2017 के समय का अवतरण

इक्सवीं सदी रोॅ तरी सेॅ
उठी रहलोॅ छै करूआ छुईयां
छानी रहलोॅ छै धरती सरंगोॅ केॅ
फैक्टरी, मोटरकार, टैक्सी, मैक्सी सबनेॅ
प्रदूषण केॅ बढ़ाय रहलोॅ छै कुहासा जुंगा।
आदमी छटपटाय रहलोॅ छै
करूआ छुईयां सेॅ
आदमी मजबूर छै-सांस लै सेॅ
आदमी जीवी रहलोॅ छै धुईयां मेॅ।
आदमी रोॅ दिमाग धुईयां जुंगा
कारोॅ होय रहलोॅ छै।
इक्सवीं सदी मेॅ देखाय छै खाली
धुईयाँ। धुईयाँ॥ धुईयाँ॥।
प्रदूषण रोॅ प्रकोप छेकै बाढ़ सुखाड़
प्रदूषण सेॅ बचै रोॅ एक्केॅ उपाय छै
लगावोॅ हर आदमी आपनोॅ नामोॅ पर एक गाछ
गाछी ही देतौं छाँव
तयैं आदमी केॅ मिलतौं ठॉव।
तभियें सांस लियें सकभोॅ आदमी
खुशहाल रहेॅ सकभोॅ आदमी
इक्सवीं सदी मेॅ संकल्प लेॅ हमरानी।
हे धरती माय। तोहेॅ हमरी कामधेनु छेकी
हमरोॅ अमृत कलश, तारोॅ हवा, तोरोॅ पानी सेॅ
तोरोॅ आगिनी सेॅ, हम्मेॅ आदमी सेॅ देवता बनै छी।
तोरोॅ रोईयां-रोईयां केॅ चंदन बनैलेॅ राखबौं।

-‘कंचन लता’ में प्रकाशित