भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"छंद 45 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

19:08, 29 जून 2017 के समय का अवतरण

रोला
(परकीया नायिकाओं का संक्षिप्त वर्णन)

रचि-रचि औंरैं रूप, कबहुँ अनुराग बढ़ावैं।
बिन हरि भेटैं बहरि, बहुत बिरहा-दुख पावैं॥
हरि-आवन-बन-जानि, कबहुँ भूषन-पट साजैं।
बेर भए तैं कबहुँ, ताप सौं सब अँग छाजैं॥

भावार्थ: कबहुँ (कभी-कभी) औरौं का रूप रचकर अनुराग को बढ़ाती हैं, फिर कृष्ण से मिले बिना बहुत दुःखित होती हैं। कबहुँ (कभी-कभी) वन से नटवर को आते जान भूषन-पट सुसज्जित करती हैं और कबहुँ (कभी-कभी) आने के समय में देरी होती देख संतापित होती हैं।