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23:18, 18 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

तुमने मेरी तारीफ़ की
आठ आठ ईंटें सर पर उठाकर
चलते देख भी मेरे परिश्रम को नहीं सराहा
जानते हो छाती पर आँचल और सर पर बोझ का संतुलन
पेट के समीकरण से सधता है
तुम्हारी आँखों में कुछ भी हो मैंने नहीं देखा
उससे मुझे मतलब भी नहीं
मुझे तो हर पल दिखती है मेरे दुधमुंहें बच्चे की छवि
इन्हीं ईंटों में तभी तो बड़ी शाइस्तगी से उठाती हूँ उनको
संभाल कर रखती हूँ सर पर
चढ़ती हूँ एक दो तीन माले तक बनी अधबनी सीढ़ियाँ
जानती हूँ अभी जिन बिना खिड़की दरवाज़े के कमरों में
हम रह रहे कल उन तक फटकने की भी इज़ाज़त न होगी हमें
तुम्हारी बैठक में सजेगी मुझ मजदूरनी की आधुनिक पेंटिंग
झलकते आँचल वाली
तुम्हारे शयन कक्ष में लगी पेंटिंग में संभव है आँचल उतर भी जाए
पर मैं हरगिज़ नहीं उतरूंगी अपनी नज़र से नीचे
मैं ज़रूरत की दाँव पर लगी द्रोपदी नहीं
और मैंने कभी कृष्ण को नहीं पूजा