भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"धरो नहीं मनुहारें / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतींद्रनाथ राही |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:09, 23 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

बात करो
रूठो
कुछ मचलो
धरो नहीं ऐसी मनुहारें।
इतना भारी बोझ न लादो
मेरे इन दुर्बल कन्धों पर
उठ न जाय विष्वास जगत का
कहीं प्यार के अनुबन्धों पर
बरसों का यह साथ
बैठकर छन्द बुने
सम्वेदन बाँटे
भरे किसी ने फूल
किसी की
अँजुरी में आए कुछ काँटे
हमने तो बस
सदा प्यार में
सीखी थीं केवल स्वीकारें।
स्वर्ण सबेरे
रजत दुपहरी
साँझें थीं अपनी सिन्दूरी
मोर पंखिया सपन सन्दली
वे रातें शीतल कर्पूरी
एक साथ ही तो हम तुमने
आँधी में भी दीप धरे थे
तपित रेत, पाशाण फोड़कर
गन्ध लुटाते फूल खिले थे
धरे सातिये
कचनारों ने
अमलताश की बन्दनवारें।
अर्जन क्या,
बस दाल-रोटियाँ
कोरी चादर
उजले दामन
कुछ नन्हे मुन्ने गीतों से
रुनक-झुनक थे अपने आँगन
छत पर
काग-कपोत-कोकिला
आँगन में
चुगती गौरैया
गौधूली में रणित घंटियाँ
बोझिल अयन रँभाती गैया
चौपालों पर झाँझ मजीरे
इकतारे की थी झनकारें।