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चंचल सी नदी
तलहटी में जमें पाहन
पर निर्विरोध निरंकुश
बहती चली जा रही है
अपने घरोंदे छोड़कर मीन भी संग हो ली
बेसुध बहती अपने मीठेपन से अनजान
सागर में घुल जाती है
अपने अस्तित्व के साथ खेल गई वह
फिर सागर में खुद को ढूंढ न पाई
इक रोज़ मिली अपनी बिछुड़ी सखी से
खूब रोई थी उस दिवस याद कर हिमालय की गोद को
पाहन भी बहुत याद आए थे
जिन पर चंचलता से बहती थी
अब प्रयास करने पर भी वैसी स्वतंत्रता न थी
समंदर का पानी इनके आँसुओं से तो खारा नहीं हुआ
सूरज का साथ मिला उसके ताप में स्वयं को घुलाया
मिला रूप बादल का फिर खूब बरसी उसकी आँखें
धरती को जीवन देते मीठे आँसू थे