भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कली के प्रति / रामावतार यादव 'शक्र'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामावतार यादव 'शक्र' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:45, 14 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण
बड़े सबेरे से उठ कलिके!
मना रही आनन्द अपार।
क्या पाया इस जग में आकर
तनिक बताओ तो सुकुमार!
रूप-रंग निज देख-देख कर
क्या तुमको अभिमान हुआ?
हरे भरे उपवन को लखकर
या तुम लुटा रही हो प्यार!
हँसना यहाँ मना है पगली, क्या न शूल ने बतलाया!
मोती ये झूठे ओसों के, क्या न किरण ने समझाया।