भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जीवन-भर / नईम" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:27, 13 मई 2018 के समय का अवतरण
जीवन यह/दोमुँहा जिया,
बार-बार काटा
खुद का लहू पिया।
सूँघ लिया जिन्हें
वही रह गए,
काटा इसतरफ
उधर ढह गए;
आतंकित रहे सभी
स्वजन, बंधु, प्रिया।
पुत्र हुए
जन्म से अनाभारी,
और पिता
अफसर ज्यों सरकारी;
कोरा संवादहीन
नाटक ही किया।
जर्जर
मुनि श्रमण शाक्य,
टँगे हुए
संज्ञाहत आज वाक्य;
पम्परा को चूसा
प्रगति को अदेय दिया।
बूढ़ी कांक्षाओं के
पीछे-पीछे दौड़ा,
बहिरागत पुत्रों ने
अश्वरोक भ्रम तोड़ा;
भूले फिर मिली नहीं
शबरी या सिया।
जीवन-भर/जीवन यह दोमुँहा जिया!