भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आज महाजन के पिंजरे में / नईम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:31, 14 मई 2018 के समय का अवतरण

आज महाजन के पिंजरे में कैद सुआ है,
अभिशापित मनुवाँ बेचारा,
काम न आई दवा-दुआ है।

टूटी खाट जनम से अपनी,
अपलक रात जागती रहती,
इन खेतों से उन मेड़ों तक,
एड़ीं उठा भागती रहती।

भ्रष्ट व्यवस्था का आदम की
गर्दन पर खुरदरा जुवाँ है।

मनुपुत्रों की जात न पूछो
कल तक थे कंधों टखनों से,
आज भँवर में फँसे हुए ये-
हो न सके ये जन अपनों से।

मेहनत भी क्या मानी रखती?
साहस: सट्टा और जुआ है।

विधवाओं-सी सिसक रही ये
शंखध्वनि-सी भोर अभागिन
रातें स्याह-सफेद कर रहीं
संध्याएँ हो गईं बदचलन।

दाएँ है गहरी खाई तो,
बाएँ भुतहा अंध कुवाँ है।