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पार गए तो पौबारह हैं,
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ऐसे साँचे रहे नहीं अब
फिसल गए तो फिर हरगंगा।
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जो अपने अनुरूप् ढाल लें।
मूल-सूद से जीम गए ये,
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खरी धातु के सिक्कों-सा
माँगों तो लेते हैं पंगा।
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हाटों-बाज़ारों में उछाल दें।
  
एक आँख से हँसते, दूजी से रो लेते,
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पूर्णाहुति की क्या कहते, प्रारम्भ अधूरे,
शीश काट सिरहाने रखकर ये सो लेते,
+
मूल्यों के ये ढेर हो रहे बिल्कुल घूरे;
पेशेवर उस्ताद सियासी-
+
पानी ही जब नहीं रहे, हम-
करवाते प्रायोजित दंगा।
+
क्या धोएँ कैसे खँगाल लें?
  
हाथ थामने को उद्यत, व्रत ही सेवा का,
+
अब है मात्र सियासत पूँजी की टकसालें,
बेवा सरस्वती हो या क्वाँरी रेवा का;
+
पिद्दी चमचे, छुटभैयों को केवल ढालें;
क़ौमों की खातिर निकले ये-
+
धूर्त्त लकड़बग्घों की एवज-
सिर से बाँधे क़फन तिरंगा।
+
बेहतर है, हम शेर पाल लें।
  
दिन में ये दिखते, रातों में इनको दिखता,
+
पुत्रवान होने से बेहतर आज निपूते,
सरेआम डाके हत्याएँ, कोई थाना रपट न लिखता।
+
काट रहे हैं रह-रहकर पैरों को जूते;
चौबीसो घंटे शिकार पर,
+
भूजी भाँग नहीं है घर में,
रहते हैं ये बिल्ला-रंगा।
+
क्या पिसवाएँ, क्या उबाल लें?
 
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16:03, 14 मई 2018 का अवतरण

ऐसे साँचे रहे नहीं अब
जो अपने अनुरूप् ढाल लें।
खरी धातु के सिक्कों-सा
हाटों-बाज़ारों में उछाल दें।

पूर्णाहुति की क्या कहते, प्रारम्भ अधूरे,
मूल्यों के ये ढेर हो रहे बिल्कुल घूरे;
पानी ही जब नहीं रहे, हम-
क्या धोएँ कैसे खँगाल लें?

अब है मात्र सियासत पूँजी की टकसालें,
पिद्दी चमचे, छुटभैयों को केवल ढालें;
धूर्त्त लकड़बग्घों की एवज-
बेहतर है, हम शेर पाल लें।

पुत्रवान होने से बेहतर आज निपूते,
काट रहे हैं रह-रहकर पैरों को जूते;
भूजी भाँग नहीं है घर में,
क्या पिसवाएँ, क्या उबाल लें?