भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ऐसे साँचे रहे नहीं अब / नईम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
<poem>
 
<poem>
 
ऐसे साँचे रहे नहीं अब
 
ऐसे साँचे रहे नहीं अब
जो अपने अनुरूप् ढाल लें।
+
जो अपने अनुरूप ढाल लें।
 
खरी धातु के सिक्कों-सा
 
खरी धातु के सिक्कों-सा
 
हाटों-बाज़ारों में उछाल दें।
 
हाटों-बाज़ारों में उछाल दें।

16:04, 14 मई 2018 के समय का अवतरण

ऐसे साँचे रहे नहीं अब
जो अपने अनुरूप ढाल लें।
खरी धातु के सिक्कों-सा
हाटों-बाज़ारों में उछाल दें।

पूर्णाहुति की क्या कहते, प्रारम्भ अधूरे,
मूल्यों के ये ढेर हो रहे बिल्कुल घूरे;
पानी ही जब नहीं रहे, हम-
क्या धोएँ कैसे खँगाल लें?

अब है मात्र सियासत पूँजी की टकसालें,
पिद्दी चमचे, छुटभैयों को केवल ढालें;
धूर्त्त लकड़बग्घों की एवज-
बेहतर है, हम शेर पाल लें।

पुत्रवान होने से बेहतर आज निपूते,
काट रहे हैं रह-रहकर पैरों को जूते;
भूजी भाँग नहीं है घर में,
क्या पिसवाएँ, क्या उबाल लें?