भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"भीतर से बाहर ही चलो / नईम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:41, 14 मई 2018 के समय का अवतरण

भीतर से बाहर ही चलो-
चले टहलें,

पतझर बगूलों में
(एक दूसरे को
कुछ देर और सह लें)

यूँ तो संवाद चुक गए-से हैं
एक-दूसरे को नए-से हैं;
हो लें निःशेष
सभी कह लें।

अपने-अपने में रह सकते हैं,
बोलें तो खुद से कह सकते हैं।

शाम: एक नदी
उमस मिटे
संग-संग बह लें।

चलो चलें
हरी घास पर क्षणभर टहलें।
तीसरा नहीं कोई
हो तो हो।

एक नहीं हो पाएँ
तो भी दो-
एक-दूसरे को
कुछ देर और सह लें।