"सामाजिक न्याय / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर
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नहिं अब ऐसो कहुँ अँगरेजी न्याय रह्यो तब।
जहँ ऐसे अपराध गिनत अति तुच्छ लोग सब॥192॥
बिन रुपया खरचे नहिं मिलत न्याय कोउ विधि जहँ।
होत साँच को झूठ वकीलन की जिरहन महँ॥193॥
जहँ थोरे ही लाभ देत जन झूठ गवाही।
लौकिक हानि न गुनत नगद लहि चेहरे साही॥194॥
जहाँ आज को चह्यो न्याय दस बरस अनन्तर।
सौ साँसति सहि, निर्धन ह्वै कोउ भाँति लहत नर॥195॥
तब तौ पाँच पंच जहँ बैठत ठीक-ठीक तहँ।
होत न्याय बिन खरच, बिना स्रम, घरी पहर महँ॥196॥
रहत सबै भयभीत सहज सामाजिक त्रासन।
देस रीति, कुल रीति करत विधि सों परिपालन॥197॥
रहे सबै सम्पन्न, सबै स्वाधीन समुन्नत।
सबके हिय साहस, मन सबको सदा धर्म्मरत॥198॥
सबके तन में प्रबल पराक्रम, तेज बदन पर।
सबके मुख मुसक्यानि नैन में आज रह्यो भर॥199॥
जहाँ मिलत दस नर नारी ह्वै जात उँजारी।
हिलन मिलन, उनकी लागत मन को अति प्यारी॥200॥
हाय यही थल जहाँ रहत आनन्द मच्यो नित।
आवत ही ह्वै जात उदासहु जहँ प्रफुलित चित॥201॥
आज तहाँ की दसा कछू कहिबे नहिं आवत।
बन बिहंग हैं जरि बहु कुत्सित सारे सुनावत॥202॥