भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नाग पंचमी /प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

17:20, 20 मई 2018 के समय का अवतरण

नाग पंचिमी निकट जानि बहु लोग अखारे।
लरत भिरत सीखत नव दाँव पेच प्रन धारे॥303॥

जोड़ तोड़ बदि देत बढ़ाय अधिक निज कसरत।
ह्वै तैयार पंचिमी के वे दंगल जीतत॥304॥

सीखत चटकी डांड़ विविध लकड़ी के दावन।
बाँधत कूरी किते लोग लागत हीं सावन॥305॥

संध्या समय आय सौ-सौ जन कूदत कूरी।
बीस हाथ लौं लांघि दिखावत बहु मगरूरी॥306॥

होत पंचमी के दिन निरनय इन कलान को।
सम वयस्क, सम कृपा कुशल जन, मध्य मान को॥307॥

जा दिन अति उत्साह लखात समग्र देश इहि।
बड़े बड़े त्योहारन के सम जानत जन जिहि॥308॥

अठवारन पखवारन आगे होत तयारी।
गड़त हिंडोला झूलत गावत युवती वारी॥309॥

निज गुड़ियान सजाय बालिका बारी भोरी।
राखत जीतन बाद सखिन सों बदि बरजोरी॥310॥

प्रात पंचिमी उठि माता निज शिशुन सजावत।
रचि रचि नागा बिन ब्याहे बालकन बनावत॥311॥

कन्यनहीं को तो यह है त्यौहार मनोहर।
ताही सों तो तिनको होत सिंगार अधिक तर॥312॥

नये बसन आभूषन सजि डलरी गुड़िया लै।
गावत जिनके संग सुसज्जित सखी समुच्चय॥313॥

चलैं मराल चाल सों ताल जाय सेरबावैं।
बाटैं घुघुनी, चना, मिठाई, जब गृह आवैं॥314॥

झूलैं झूलन फेरि, झुलावैं, तिन भ्राता गन।
जेवैं जुरि तब पुनि नाना प्रकार के ब्यंजन॥315॥

तिन रच्छा हित रहैं सिपाही गन जहुँ ओरन।
पहरे पर नियुक्त ते आय लहैं बकसीसन॥316॥

भीर होय भोजन के समय उठैं सब इक संग।
निपटैं कई पंक्ति मैं सहित प्रजा आश्रित गन॥317॥

होली ही के सरिस उछाह रहत जामैं इत।
खेल, कूद, कसरत, मनरंजन, साज अपरिमित॥318॥

कहुँ झूलन की गीत कहूँ कजरी तिय गावैं।
पुरुष कहूँ सावन मलार ललकार सुनावैं॥319॥

बीतत वर्षा जबहिं विसद रितु सरद सुहावत।
बीर बिनोद बढ़ावन कौतुक लखिबे आवत॥320॥

विजयादशमी की तैयारी होन लगत जब।
चहत दिखावन सब जिहि मिस निज-निज बल करतब॥321॥

होत रामलीला को अति विशाल आयोजन।
करत काज आरम्भ अनेकन कारीगरगन॥322॥

करत सिकिल सिकलीगर हथियारन के ऊपर।
करत मरम्मत बनवत त्यों म्यानन मियानगर॥323॥

बहु बढ़ई लोहार गन निज-निज काज सँवारत।
कुन्दा काँटा कील कसत रचि सजत बनावत॥324॥

करत मरम्मत ढाल परतले तोसदान की।
बनवत नूतन हूँ मोर्चा करि सज दुकान की॥325॥

आतस-बाज अनेक मिले बारूद बनावत।
कितने आतशबाजी बनवत ठाट सजावत॥326॥