भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कजली / 4 / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

09:52, 21 मई 2018 के समय का अवतरण

॥रंडियों की लय॥

बाँके नैनों ने रसीले! तोरे जदुआ डाला रे।
मुख मयंक पर मण्डल मानौ कान सजीले बाला॥
मोर मुकुट सिर अधर मुरलिया गर बिलसत बनमाला।
प्रेम प्रेमघन बरसावत कित जात नन्द के लाला॥9॥

॥दूसरी॥

तोरी गोरी रे सूरतिया प्यारी-प्यारी लागै रे॥
मन्द मन्द मुसुकानि लखे उर पीर काम की जागै।
बरसावत रस मनहुँ प्रेमघन बरबस मन अनुरागै॥10॥

॥तीसरी॥

मारी कैसी तू ने जनियाँ! बाँके नैनों की कटार॥
पलक म्यान सों बाहर कर-कर दीन करेजे पार।
ब्याकुल करत प्रेमघन मन हक नाहक हाय! हमार॥11॥