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"कजली / 45 / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर

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जन्माष्टमी की बधाई

मिट्यो सकल दुख द्वन्द, बढ्यो आनन्द, नन्द घर आए रामा।
हरि हरि अज आनन्द कन्द बृजचन्द मुरारी रे हरी॥
भार उतारन काज भूमि, लखि भरी पाप तैं भारी रामा।
हरि हरि लीला ललित करन रुचि रुचिर बिचारी रे हरी॥
असुर सकल अकुलाने, सुरगन बरसत सुमन सुखारी रामा।
हरि हरि कहत "जयति जय-जय जग मंगलकारी" रे हरी॥
गाय प्रेमघन गुन बिरंचि, शिव नाचत दै करतारी रामा।
हरि हरि मुदित मनहुँ तम मन की सुरत बिसारी रे हरी॥81॥