भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कजली / 55 / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
13:30, 21 मई 2018 के समय का अवतरण
उर्दू भाषा
दिल फ़रेब दिन हैं सावन के॥
घिरकर काली घटा दिखाती है जोबन को चर्ख़ कुहन के.
सब्ज़ा छाया ज़मीं प' हँसते हैं खिलकर गुलहाय चमन के॥
घूम रही हैं बीरबहूटी गोया बिखरे लाल इमन के.
चमक रही है बर्क़ सीखकर नखरे नाज़नीनेपुरफ़न के॥
नाच रहे हैं मोर पपीहे शोर मचाते हैं गुलशन के.
गाकर झूला झूल रहे हैं माह लका सब सीम बदन के
पियो मये गुलरंग भूलकर सब ख़याल बातिल बचपन के.
अब्र बरसता है वाराँ दो बोसेदो लिल्लाह दहन के॥100॥