भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कजली / 59 / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

13:31, 21 मई 2018 के समय का अवतरण

नागरी भाषा

दसो दिशा में दमक रही दामिन है देखो बार बार।
प्रभा प्रकृति प्रगटाती है अम्बर का अम्बर फार फार॥
घिरकर काली घटा बरसती बूँद सुधा-सी गार गार।
उमड़ उमड़ कर बहता है जल झील नदी और नार नार॥
वर्षा ऋतु आई सुखदाई तपन ताप कर पार पार।
हरी भरी छिति भई, झुके तरु हरियारी के भार भार॥
बहती बेग भरी पुरवाई खिले सुमन सब झार झार।
नाच रहे हैं मोर पपीहे, पिहँक रहे हैं डार डार॥
संयोगिनी नारि नीरज नैनों में अंजन सार सार।
मेहंदी के रंग रँगकर कर पद, पट करौंदिया धार धार॥
विशद विभूषण से भूषित झूलती हैं झूले द्वार द्वार।
गाती हैं कजली मलार, मिल-मिल कर दो-दो चार चार॥
सरस भाव भीनी चितवन से देखैं घूँघट टार टार।
मन्द मन्द मुसुकातीं मानो मूठ मोहनी मार मार॥
पिय से मिलीं मदन मदमाती देतीं-सी हिय हार हार।
वियोगिनी बनितायें बिलख रही हैं आँसू ढार ढार॥
सुनकर जाने की बातें जी जलता है हो छार छार॥
जावो कहीं न पिया प्रेमघन जाऊँ तुम पर वार वार॥105॥