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बिल्ली मौसी माला लेकर
पहुँच गई ऋषिकेश,
तिलक लगाकर भक्तिन जैसा
खूब बनाया वेश।
गंगा-तट पर बैठ गई वह
आँखे करके बंद,
पर चूहे भी समझ गए थे
मौसी के छलछंद।
हुई सुबह से शाम, न आया
चूहा कोई पास,
सारे दिन भूखी-प्यासी
मौसी हुई उदास।
[चमचम, अक्तूबर 1974]