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बादल में न ठहरतीं बूँदें,
नहीं किसी से डरतीं बूँदें,
टप-टप-टप-टप गिरती बूँदें,
झर-झर-झर-झर झरती बूँदें।
धरती शीतल करतीं बूँदें,
नदी-तलैयाँ भरतीं बूँदें,
प्यास-ताप सब हरतीं बूँदें,
परहित को ही मरतीं बूँदें।
[चम्पक, अगस्त (प्रथम) 1977]