भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ब्राह्मणवर्णार्था / प्रेमघन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

08:05, 23 मई 2018 के समय का अवतरण

चेतो हे-हे बाभन भाई! सुधि बधि काहे रहे गँवाय॥
तुमरेई पुरखे मनु, पाणिनि, भृगु, काणद, मुनिराय।
व्यास पतंजलि, याज्ञवल्क्य, गुरु गये शास्त्र जे गाय॥
जैमिनि कपिल, भरत, पाराशर धन्वन्तरि, समुदाय।
भये विबुध विज्ञान प्रदर्शक तुमहिं सीख सिखलाय॥
तपसी भरद्वाज, दुरवासा, सृगं, पुलस्त्यहु आय।
भए भक्त नारद, सुक से, भजि हरि तन अघ विनसाय॥
परसुराम, कृप, द्रोण, वीरवर निज वीरता दिखाय।
सुक्र, वसिष्ट, विष्णु, चाणक, सुभ राजनीति प्रगटाय॥
वालमीकि, भवभूति, बान, जय देव, नरायन चाय।
कालिदास आदिक कविवर, सत् कविता गए बनाय॥
ताके बंस जनम लैकै तुम निज कुल रहे लजाय।
हाय! लोक परलोक सो सब जनु पी गये उठाय!
करम, धरम, आचार, विचारहि, सदाचार घर ढाय।
वेद, सास्त्र, तप, संस्कार तजि बने निशाचर भाय॥
निज करतव्य धरम तजि घूमत स्वारथ लोलुप धाय।
धक्का खात घरहिं घर माँगत भीख तऊ मुँह बाय!
नाना अधम वृत्ति करि लै धन डकारहु खाय अघाय।
हाय! हाय! नहिं लाज लेस हिय, नहिं अपमान समाय!
देखहु जग सब अरि तुमरे जिय विहंसत मोद बढ़ाय।
खोदत जड़ तुमरी नित पै मन तुमरो नहिं मुरझाय!
वेद विरुद्ध हाय! भारत रह्यो कुपथन को तम छाय।
पै तुम कहँ नहिं सूझि परत कछु छिनहुँ न सोवौ जाय!
बूड़त देस तुमारेहि आलस अधरम तापनि ताय।
विप्रवंस मिलि सबै प्रेमघन सोचहु बेगि उपाय॥144॥