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"सूचनाधिकार कानून / लक्ष्मीकान्त मुकुल" के अवतरणों में अंतर

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15:06, 3 अगस्त 2018 के समय का अवतरण

सत्तासीनों ने सौंपा है हमारे हिस्से में
गेंद के आकर की रुइया मिठाई
जो छूते ही मसल जाती है चुटकी में
जिसे चखकर समझते हो तुम आज़ादी का मंत्र

यह लालीपाप तो नहीं
या, स्वप्न सुंदरी को आलिंगन की अभिलाषा
या, रस्साकशी की आजमाईश
कि बच्चों की ललमुनिया चिरई का खेल
या, बन्दर – मदारी वाला कशमकश
जिसमें एक डमरू बजता है तो दूसरा नाच दिखाता
या, सत्ता को संकरे आकाश-फांकों से निरखने वाले
निर्जन के सीमांत गझिन वृक्षवासियों की जिद
या कि, नदी - पारतट के सांध्य – रोमांच की चुहल पाने
निविडमुखी खगझुंडों की नभोधूम

सूचनाधिकार भारतीय संसद द्वारा
फेंका गया महाजाल है क्या ?
जिसके बीच खलबलाते हैं माछ, शंख, सितुहे
जिसमें मछलियाँ पूछती हैं मगरमच्छों से
कि वे कब तक बची रह सकती हैं अथाह सागर में
जलीय जीव अपील-दर-अपील करते हैं शार्क से
उसके प्रलयंकारी प्रकोप से सुरक्षित रहने के तरीके
छटपटाहट में जानने को बेचैन सूचना प्रहरी
छान मारते हैं सागर की अतल गहराई को
हाथों में थामे हुए कंकड़, पत्थर, शैवाल की सूचनाएं

एक चोर कैसे बता सकता है सेंधमारी के भेद
हत्यारा कैसे दे सकता है सूचना
जैसा कि रघुवीर सहाय की कविता में है - ‘आज
खुलेआम रामदास की हत्या होगी और तमाशा देखेंगे लोग ‘
मुक्तिबोध जैसा साफ़ – स्पष्ट
कैसे सूचित करेगा लोक सूचना पदाधिकारी
जैसा कि उनकी कविता में वर्णित है कि
अँधेरे में आती बैंड पार्टी में औरों के साथ
शहर का कुख्यात डोमा उश्ताद भी शामिल था
एक अफसर फाइल नोटिंग में कैसे दर्ज करेगा
टाप टू बटम लूटखसोट का ब्यौरा
कि विष-वृक्षों की कैसी होती हैं
जडें, तनें, टहनियाँ और पत्तियां?

बेसुरा संतूर बन गया है सूचना क़ानून
बजाने वाला बाज़ नहीं आता इसे बजाने से
यह बिगडंत बाजा, बजने का नाम नहीं ले रहा
आज़ाद भारत के आठ दशक बाद
शायद ही इसे बजाने का कोई मायने बचा हो
गोरख पाण्डेय की कविता में कहा जाए तो
‘रंगों का यह हमला रोक सको तो रोको
वर्ना मत आंको तस्वीरें
कम-से-कम विरोध में