"पंचायत चुनाव में गाँव / लक्ष्मीकान्त मुकुल" के अवतरणों में अंतर
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नदी में फेंकता है मछुआरा जाल
खदबदाने लगती हैं मछलियाँ
पंचायत चुनाव की घोषणा होते ही
चिरनिद्रा से जागते हैं नर्मेद्य
वोटों के सौदागर
अपने आप लोग फंसते जाते हैं उसके घेरे में
राजनीति की पेंच लड़ाने वाले
पारंगद पतंगबाजों की पताकायें दिख जाती हैं दूर से
घर – घर में हो रही सेंधमारियों से पुलकित हैं चेहरे
अश्पृश्यता का खात्मा जहाँ अब तक न कर सका संविधान
उसकी दीवाल टूट रही है हौले से
गोश्त भरी थाली और दारु कि बोतलों में
कई जिन्दा गोश्तें दौड़ती हैं मादकता बिखेरती
पंचायत के भीतर बाहर
चुनाव पूर्व ही योद्धाओं द्वारा
की जाती है मौखिक रूप से ही योजनायें आवंटित
जाति, धर्म, संबंधों के
मकडजाल के बीच मच्छर हाट की तरह ख़रीदा जाता है वोट
बिकने को आतुर दिखता है गाँव का चेहरा
क्रेता-बिक्रेता के प्यार से रंग जाता है चुनावी बाज़ार
जो बेचते नहीं अपना वोट सौदागरों को
नरमेद्यों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है उन पर
उनके खेत रखे जाते है बिन पटे
उनके बच्चे निकाल दिए जाते हैं स्कूलों से
घर से निकलने के रोके जाते हैं उनके रास्ते
उनकी औरतें रहतीं हैं हरदम असुरक्षित