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"थार, थोर और थिर / जितेन्द्र सोनी" के अवतरणों में अंतर
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दुश्वारियों के थार में
उग आते हैं हौसले
अक्सर थोर की तरह
किसी सहारे की आस बिना
अभावों का सूखापन,
आलोचनाओं की लू
और संघर्षों की तीखी धूप में
थोर-क्षीर की तरह
समेट लेते हैं सबकुछ
ज़िन्दा रहने की ज़िद
और जद्दोजहद में ।
थार में जीवन
थोर होने में है
थिर होने में नहीं !!