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"पत्थर / मंजूषा मन" के अवतरणों में अंतर
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मत फूँको मुझ में
प्राण,
नहीं चाहती मैं
किसी पैर के
अंगूठे की छुअन से
खो देना
अपना पथरीलापन,
अब भाने लगा है मुझे
पत्थर होना...
यूँ भी,
जी कर क्या पाया था
दर्द के सिवा
और अब जी कर
क्या पाऊँगी
सिवाय दर्द के...
मैं अहिल्या भली!!!